Book Title: Chahdhala 2
Author(s): Daulatram Kasliwal
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 161
________________ और ध्यान का मेष-विकल्प महीं रहता है। उस समय की सर्व क्रिया वचन अगोचर हो जाती है। उसी समय आत्मा का चैतन्य भाव ही कर्म है चैतन्य ब्रह्म हो कता है और चेतना ही क्रिया बन जाती & है अर्थात् जिस समय ध्याता ध्यान योग तथा का वर्ण जौरा मे गनों भिन्न नहीं रह जाते. ४ & किन्तु एक अभिन्न अखंड एक मात्र शुद्धोपयोग की निश्चल अविचल दशा प्रगट हो जाती है । उस समय सम्यग्दर्शन, सम्याज्ञान और सम्याचारित्र ये तीनों ही एक स्वरूप प्रतिभाषित होने सगते हैं । परमाणनय निक्षेप को न उद्योत अनुभव में दिखें । हुग ज्ञान सुख बलमय सदा नहिं आन भाव जुमो विखें। में साध्य साधक मैं अबाधक कर्म अर तस फलनित। चित पिंड चंड अखंड सगण करंडच्यत पनि कल नितें ॥१०॥ अर्थ- उस ध्यान की अवस्था में प्रमाण नय और निक्षेप का भिन्न-भिन्न प्रकाश अनुभव में नहीं दिखाई पड़ता है। किन्तु सबा काल में दर्शन, शान, सुख, बल, वीर्यमय है । अन्य रागादि भाव 8 मेरे नहीं है यही प्रतिभाषित होता है। मैं हो साध्य हूँ और में ही साधक हूँ । कर्म और कर्म के फल से मैं अबाधित हैं । मुझ पर किसी तरह की बाधा नहीं है। मै चैतन्य पिंड हूं, अखण्ड ज्ञान ज्योति का धारक हूँ, अखंड हूँ उत्तम उत्तम गुणों का भंडार हूँ और सर्व प्रकार के पापों का समूह & से दूर हूँ अर्थात् में सच्चिदानन्दमय केवलज्ञान स्वरूप हूँ । अब उक्त ध्यान अवस्था का महात्म्य लिखते हैं यो चित्य निज में थिर भये तिन अकथ जो आनन्द लह्यो। सो इन्द्र नाग नरेन्द्र वा अहमिन्द्र के नाहीं कह्यो ।

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