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ढाला
१ - ज्ञानावर्णी कर्म के क्षय से अनन्त ज्ञान प्रगट होता है ।
२- दर्शनावणी कर्म के क्षय से अनन्त दर्शन ३ - वेदनीय कर्म के क्षय से अव्यावाध ४ - मोहनीय कर्म के क्षय से क्षायक सम्यक्त्व ५ - आयु कर्म के क्षय से अवगाहन गुण ६ - नाम कर्म के क्षय से सूक्ष्मत्व गुण ७ - गोत्र कर्म के क्षय मे अगुरुलघु गु ८ अन्तराय कर्म क्षय से अनन्त वीर्यं
गुण
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ऐसे मुक्त हुए आत्मा संसार रूपी अगाध खारे समुद्र से तिर कर पार हो जाते हैं और सर्व प्रकार के विकारों से रहित, शरीर रहित, रूप, रस, गंध, स्पर्श सिद्ध पद को प्राप्त होते हैं ।
रहित, निर्मल चिदानन्दमय अविनाओ
अब सिद्ध अवस्था को लिखते हैं-
निज मांहि लोक अलोक गुण पर्याय रहि हैं अनन्तानन्त काल यथातथा धनि धन्य हैं जे जीव नरभव पाय यह कारज किया। तिनही अनादि भ्रमन पंच प्रकार तजि वर सुख लिया ॥ १३ ॥
अर्थ - सिद्ध अवस्था में अपनी आत्मा के भीतर ही लोकाकाश और अलोकाकाश समस्त
प्रतिबिम्बित थये ।
शिव परनये ॥