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अर्थ--- सकल संयम के धारण करने वाले साधुगण बारह प्रकार के तप को तपते हैं, दशा प्रकार के प्रम को धारण करते हैं और सदा काल रत्नत्रय का सेवन-अराधन करते हैं वे साधु गण संध के साथ में विहार करते हैं और वयोवृद्ध, ज्ञान वृद्ध या संयम वृद्ध अर्थात् संयम रत्त को विशेष रूप से धारक हो जाने पर कदाचित् अकेले भी विहार करते हैं। वे दिगम्बर मुद्रा के धारक साधु कभी भी सांसारिक सुख को वांछा मही करते हैं । इस प्रकार यहां तक सकल संयम चारित्र का वर्णन किया। इसको धारण करने से अपने आत्मा की निधि प्रकट होती है और पर को, पुद्गल को और के निमित्त से उत्पन्न होने वाली सर्व प्रवृत्ति मिट जाती है ।
भावार्थ--- बारह तपो का स्वरूप ऐसे समझना चाहिए । अनशन--- खाद्य, स्वाथ, लेह्य और पेय, इन चारों प्रकार के आहार का त्याग कर, उपवास वेला, तेला आदि रूप से उपवास करने की अनशम तप कहते है। अमाद और आलस जीतने के लिए भूख से कम खाने को अबमोदयं तप कहते हैं । गोचरी को जाते समय गली घर वगैरह की मर्यादा करने को वृति परिसंख्यान तप कहते हैं । घो दूध बहो आदि पुष्टिकारक रसों के त्याग करने को रस परित्याग तप कहते हैं। शून्य भवन, निर्जन वन आदि एकान्त स्थान में सोना बैठना, सो विविक्त शय्यासन तप है । गर्मी के समय पर्वत के शिखर पर, वर्षा के समय वृक्ष के नीचे और शीत काल में चौराहे पर ध्यान लगाना, रात्रि को प्रतिमा योग इत्यादि धारण करना, सो काय क्लेश तप है। ये छह वहिरंग तप कहलाते हैं। क्योंकि इनका संबंध बाहरी द्रव्य खान पान शयन आसन आदि से रहता है । संयम को सिद्धि, ध्यान अध्ययन को सिद्धि, राग भाव को शांति, इन्द्रिय दर्प निग्रह, निद्रा विजय, ब्रह्मचर्य परिपालन, संतोष और प्रशम माव की प्राप्ति तथा कर्मों को निर्जरा के लिए उयत छहों तों को धारण करना साधुओं का परम