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8 करना, उनके चरण कमलों को नमस्कार करना और मन वचन काय की शुद्धता से स्तुति करना, उसे 8
& मूल गुण में चतुविंशति स्तवन कहते हैं । हाला
अरहंत प्रतिमा, सिद्ध प्रतिमा, अनशनादि बारह तपों कर युक्त, श्रुत गुरू, गुण गुरू, बौक्षित गुरू इनको मन वचन काप को शुद्धि से नमस्कार करना यह वंदना नामा मूल गुण है ।
प्रतिक्रमण-आहार शरीरादि द्रव्य में, वसतिका शयन आसन आदि क्षेत्र में, प्रातःकाल 8 आदि काल में, चित्त के व्यापार रूप परिणाम में किया गया जो व्रत में दोष उसका शुभ मन वचन काय से शोधना, अपने दोषों को अपने आप प्रगट करना, वह प्रतिक्रमण गुण होता है।
प्रत्याख्यान-नाम स्थापना द्रध्य क्षेत्र काल भाव इन छहों में शुभ वचन काय से 8 आगामो काल के लिए अयोग्य का त्याग करना कि मैं नहीं करूगां, न कहूंगा और न चितवन करूगा इत्यादि त्याग को प्रत्याख्यान मूल गुण कहते हैं ।
कायोत्सर्ग का स्वरूप कहते हैं-दिन में होने वाली वसिक आदि निश्चय क्रियाओं में सत्ता-8 ईश या एक सौ आट उछवास परिणाम से कहे हुए अपने अपने काल में दया क्षमा विज्ञानता सम्यग्दर्शन अनन्त झानादि चतुष्टय आदि जिन गुणों की भावना सहित, सुद्रव्य, सुक्षेत्र, सुकाल और स्वभाव रूप सुयोग आदि संपूर्ण सामग्री के विद्यमान होने पर, निश्चय चैतन्य स्वरूप आत्मा की प्राप्ति हो जाती है। जिस प्रकार खान से निकलने वाले सुवर्ण पाषाण में कारण भूत. सुयोग्य उपादान के सम्बन्ध से और वाह्य में सुवर्णकार के द्वारा साड़न, तापन, छेदन, घर्षणादि प्रयोगों के द्वारा उस पावरण से सुवर्ण अलग हो जाता है उसी तरह अनादि काल से यह आत्मा कर्म मल से कलंकित हो रहा है 8 जब द्रव्य क्षेत्र काल भाव सुयोग्य साधनों की उपलब्धि से जो कि अनसनादि वाह्याभ्यंतर सप, दश-8
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