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छह
हाला
मिलने पर उनमें द्वेष नहीं करना और इष्ट या शुभ रूप मिलने पर उनमें राग नहीं करना ये पंचेन्द्रिय विजय गुण हैं। चेतन हो इत्यादि जीव में और शैय्या आदि अचेतन में उत्पन्न हुआ कठोर नरम आदि आठ प्रकार का सुख रूप अथवा दुःखरूप जो स्पर्श उनमें बांछा न होना, मूर्च्छित न होना हवं विषाद नहीं करना यह स्पर्शन इन्द्रिय निरोध व्रत है ।
भात आदि असन, दूध आदि पान, लाडू आदि खाद्य, इलाइची आदि स्वाद्य - ऐसे चार प्रकार के तथा तिक्त कटु कषाय खट्टा मीठा पांच रस रूप इष्ट अनिष्ट प्राशुक निर्दोष आहार के दाताजनों से दिये जाने पर जो आकांक्षा रहित परिणाम होना वह जिव्हाजय नामा व्रत है ।
के स्वभाव से गन्धरूप यथा अन्यगन्धरूप द्रव्य के संसकार से सुगंधादि रूप ऐसे सुख दुःख कारणभूत जीव अजीव स्वरूप पुष्प चन्दन आदि द्रव्यों में राग-द्वेष नहीं करना वह श्रेष्ठ मुनि के घ्राणनिरोध व्रत होता है ।
सजीव अजीव पदार्थों के गीत नृत्यादि क्रियानेव गोर कालादिरूप भेदों में रागद्वेषादि या आसक्तता त्याग कर देना यह घक्षुनिरोध मूलगुण है ।
शब्द
जो गांधारादि सात स्वरूप जीव शब्द और वीणा बांसुरी आदि से उत्पन्न अमीव के शब्द जो कि रागादि के निमित्त कारण हैं इनका नहीं सुनना वह श्रोत्र निरोध
इन दोनों तरह मूलगुण है ।
आवश्यक में सामायिक कहते हैं । जीवन, मरण, लाभ, अलाभ में या इष्ट अनिष्ट के संयोग वियोग में, मित्र शत्रु में सुख दुःख में, शीत उष्ण, भूख प्यास में राग-द्वेष रहित समान परिणाम होना उसे सामायिक कहते हैं । प्रथम सर्व सावद्य क्रियाओं से विरक्त हो तीन गुप्तियों को