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छह् ढाला
भू मांहि पिछली रयनि में कछु शयन एकाशन करन ॥५॥ इक बार दिन में ले आहार, खड़े अलप निज पान में । कच लोंच करत न डरत परिषहसों लगे निज ध्यान में || अरि मित्र महल मसान कंचन का तिन युति करन । अर्धावतारन असि प्रहारन - मैं सदा
समता धरन ॥६॥
प्रतिक्रमण करते है और प्रतिदिन छह आवश्यकों लेशमात्र भी वस्त्र का
अर्थ- वे मुनिराज सदा समता भाव को संभालते हैं, स्तुति को उच्चारण करते हैं और जिन देव की वंदना करते हैं । नित्य ही शास्त्रों का अभ्यास करते हैं । अपने शरीर से ममता त्याग कर कायोत्सर्ग करते हैं । इस प्रकार ये को नियमपूर्वक पालन करते हैं । वे स्नान नहीं करते, दालन नहीं करते, आवरण नहीं रखते पिछली रात्रि में भूमि के ऊपर एक ही आसन से कुछ थोड़ा सा शयन करते हैं। ये साधु दिन में एक बार खड़े खड़े थोड़ा सा अपने हाथों में रखा हुआ आहार ग्रहण करते हैं। केश लुञचन करते हैं। परिषहों से नहीं डरते हैं और हर समय अपने ध्यान में लगे रहते हैं। ऐसे मुनिराज शत्रु और मिश्र में, महल और श्मशान में, कंचन और कांच में, निन्दा और स्तुति में, अर्ध उतारने में तथा तलवार के प्रहार में सदा रमता भाव को धारण करते हैं । अर्थात सकल चारित्र के धारक दिगम्बर साधुओं के अट्ठाईस मूल गुण इस प्रकार हैं। अहिंसा महायत, सत्य महाधत, अचौर्यमहायत, ब्रह्मचर्यं महाव्यत, अपरिग्रह महाव्रत, ये पांच महाव्रत हैं । ईर्यासमिति, भाषासनिति, एषणा समिति, आदानिक्षेपणासमिति और व्युत्सगं समिति, ये पाँच समिति हैं। पांचों इन्द्रियों के क्रमशः स्पर्श, रस, गंध, वर्ग और शब्द, ये पांच विषय हैं । इन पांचों विषयों के अनिष्ट था अशुभ रूप
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