Book Title: Chahdhala 2
Author(s): Daulatram Kasliwal
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 151
________________ 8 धारण कर अपनी इन्द्रियों को संकोचता हुआ जो स्वभाविक वैराग्य रस का भरा हुआ विकार करने ४ वाले राग-द्वेष आदि भावों के अभाव से भेद कल्पना रहित परम- समरसी भाव का पान करने वाला एक सदा शुद्ध अपनी महिमा में लीन सभ्यग्दृष्टि के अनुभवगोचर संयम नियम के धारी एक आत्मा ४ ढाला केही निकटवर्ती बाहा पांच साल से रहित अपने स्वभाव में लीन, स्वभाविक समता साक्षात शोभित आर्तरोद्र ध्यान से विमुख, पुण्य पाप भावों से या राग-द्वेष से दूर, क्रोधादिक कषायों से परान्मुख और नित्य ही धर्म ध्यान और शुक्ल ध्यान के दाता आत्मस्वभाव लवलीन उसी मानव के यह सामायिक & मूलगुण स्थायी होता है । भावार्थ-- मैं सर्व वस्तु से ममता भाव का त्याग कर निर्ममत्त्व परिग्रह रहित भाव से मेरे 8. आत्मा का ही अवलम्बन लेता हूं । मेरे नानादि आरम गुणों के सिवाय अन्य सबका त्याग है, मेरा आमा ज्ञान दर्शन पाप रूप किया को निवृत्तिरूप चारित्र में तथा प्रत्याश्यान आस्रव निरोध संवर में तथा शुभ व्यापार रूप योग में है, वह अकेला मरता और यह चेतनरूप अकेला ही उपजता है तथा करम रज से रहित हो जाता है तब अकेला ही मुक्त होता है । इसलिए यह जीव सब काल और सब अवस्थाओं में अकेला ही है, शरीराविक तो मेरे वाह्य पदार्थ हैं और आत्मा के संयोग सम्बन्ध से उत्पन्न है, इसलिये विनाशी है । एक ज्ञान दर्शन लक्षण वाला आत्मा ही नित्य है मैं उसका ही आराधन करता हूं उन्हों गुणों में ल'न होता है, ऐसे परिणामों को ही सामयिक प्रत व प्राणीमात्र से समानता समता भाव धारण करना संयम रूप रहना और आर्त चौद्र भाव को त्याग कर निजानन्द में रम जाना ये हो भाव सामायिक है। ऋषमादि चौबीस तीर्थकरों के नाम के अनुसार अर्थ करना, उनके असाधारण गुणों को प्रगट

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