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8 पाता है। वह ज्ञान आत्मा का स्वभाव है और ज्ञान थेय के प्रमाण है । ज्ञेय तीनों कालों में रहने वाले 8 & सर्व पदार्थ हैं, इसलिए शुद्धोपयोग के प्रसाद से ही यह आत्मा सर्व ज्ञेयों को जानने वाले केवलज्ञान ले 8 को प्राप्त होता है । इसलिए शुद्धोपयोग सर्व प्रकार से उपादेय है, ग्रहण करो ! इस प्रकार लोक
का स्वरूप चिन्तवन करना सो लोकभावना है । इसके बार बार चिन्तवन करने से जीव को निज तत्त्व ज्ञान की प्राप्ति होती है उससे मोक्ष पाने का प्रयस्न करता है। तत्त्वज्ञान संसार में सार है, मोक्षमार्ग का भूल धर्म है । परन्तु पात्मज्ञान प्राप्त न होने से संसार में रलता है।
अंतिम ग्रीवकलौंकी हद, पायो अनन्तबिरियां पद । पर सम्यकज्ञान न लायो, दर्लभ जिनमें मनि साध्यो ॥१३॥
अर्थ-इस जीव ने नौ वेग्रेयेय की हद (सीमा) तक के इन्द्र, अहमिन्द्र आदि पदों को अनन्त बार पाया है पर सम्यकज्ञान को नहीं प्राप्त कर पाया। जिसके कारण यह आज भी संसार में परिभ्रमण 8 कर रहा है, ऐसे अत्यन्त दुर्लभ सम्यग्ज्ञान को सच्चे साधु ही अपने आप में सिद्ध करते हैं। आगे बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा को कहते हैं- अर्थात् इस अनन्त संसार में जीवों के मनुष्य जन्म का सम्बन्ध जैसे समुद्र के पूर्व भाग में युग और समिला का सम्बन्ध । जूड़े के छेद में प्रवेश होना महान् दुर्लभ
है, किसी तरह मनुष्य जन्म भी मिल गया तो भी आर्य देश शुद्ध कुल में जन्म, सर्व अंगपर्णता, & शरीर निरोगता, साम्यर्थ, जैन धर्म, विनय, प्राचार्यों का वचन उपदेश, उसका ग्रहण करना, चिन्तवन
करना, धारण रखना, ये सब आगे प्रागे के क्रम से लोक में इस जीव को मिलने अति कठिन है । & तथा सम्यग्दर्शन को विशुद्धि का पाना अति दुर्खभ है । क्योंकि कुमार्गों की आकुलता से यह X जगत आकुल हो रहा है, उसमें राग-द्वेष दो बलवान हैं । संसार के भय को विनाश करने वाली, X
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