________________
破
ढाला
जं भाव मोहत न्यारे, दृगज्ञान
व्रतादिक सारे ।
सो धर्म जवं जिय धारे, तब हो शिव सुख विस्तारे || १४ ||
अर्थ-दर्शन मोह से रहित जो दर्शन, ज्ञान, चारित्र व्रत तप आदि हैं, वे हो सच्चे धर्म हैं
उस धर्म को जब जीव धारण करता है, तभी वह अविचल और अव्यावाध सुख को प्राप्त करता है । अर्थात् सब जीवों को हितकारी उत्तम क्षमादि दश धर्म तीर्थंकरों ने उपदेशित किया है, उस धर्म को मनुष्य शुद्ध चितवन करे यही जगत् में पुण्यवान् पुरुष है, तथा शान्ति, दया, क्षमा, वैराग्य भाव, थोडस कारण भावना आदि को जिस जीव को कल्याण की प्राप्ति होती है वही धर्मभाव से सेवन करता है ये सब जैसे जैसे बढ़ते जाते हैं वैसे वैसे इस जीव को अविनाशी मोक्ष सुख अनुभव गोचर होता जाता है । अर्थात् पंच परावर्तन रूप संसार कर जिसका मार्ग महा विषम है ऐसे भव बन में भ्रमण करते हुए मैंने बड़े परिश्रम से अर्हत कर उपदेश्या महान् धर्म पाया ऐसा जीव को चितवन करना चाहिए और जो गति अहंतों की है, जो कृतकृत्य सिद्ध परमेष्ठियों की है तथा जो गति क्षीण कषाय छद्मस्थ अल्पज्ञानी वीतरागों की है वही गति हमेशा मेरी भी होवे और में दूसरी कोई अभिलाषा या याचना नहीं करता ।
भावार्थ - इस दश लक्षण रूप धर्म को, निजानंद रमण स्वरूप की एवं जीव दयादि रूप धर्म को प्राप्ति निकट भव्य के अत्यंत भाग्योदय से होती है । यह धर्म उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, प्राकिचन और ब्रह्मचर्य स्वरूप है, अहिंसा और अपरिग्रहता हो इस के प्रधान लक्षण हैं । इसी धर्म के प्राप्त न होने के कारण ये जीव अनादि काल से इस संसार में अपने gora का फल भोगते हुए परिभ्रमण कर रहे हैं। जो जीव जैसे प्रेम अपने पुत्र, पौत्र, स्त्री, माता,