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जानता है, प्रात्मा का श्रद्धान नहीं करता है, न आत्मा के स्वरूप को अपने भावों में लगाता है और 8 न यह आत्मा अपनी प्रात्म परिणति में तल्लीन होता है, तो फिर बहुत दुःल का कारणभूत साधु अवस्था को धारण कर क्या लाभ लेता है? क्योंकि कौ का नाश, दुख की निवृत्ति और सुख को ल प्राप्ति आत्म स्वख्य में परिणति होने से ही होती है, जो आत्म स्वरूप की प्राप्ति नहीं है तो को 8
का दूर होना भी नहीं है तब जिन लिंग को धारण करने से क्या लाभ ? उसे परम सुख की प्राप्ति ४ 8 नहीं होती है । जो अपनी आत्मा का सत्य स्वरूप नहीं जाना गया तो सम्यक्त्व की प्राप्ति भी नहीं
है और सम्यक्रद के बिना मोक्ष मार्ग को प्राप्ति सर्वथा नहीं है यह जिनदेव का सुदृढ़ निश्चित सिद्धांत है। इस कारण कल्याणार्थी आत्मा को अपना सुहृत स्वरूप अनुभव करना योग्य है यही शिक्षा उपादेय है । मैं पर पुद्गलों से भिन्न, टंकोत्कीर्ण ज्ञामानन्द मय शुद्ध प्रात्म स्वभाव को बारंबार भावना सुधारस समान परमाहलाद को देमहारी हृदय में भावता हूँ यह प्रात्मा शुद्ध नय कर उपाधि रहित अभेद स्वभाव रूप जैन सिद्धान्त का नाम श्रद्धान संयम संयुक्त मोक्ष मार्ग में स्थित मोक्ष सागर के राजहंस स्वरूप, साधु रूपो पक्षियों के लिए विश्रामाश्रय, मुक्ति रूपी रमा के पति, काम रूप सागर के मन्थन के लिए मन्दराचल, भव्य जन रूपी कुल कमल विकासने के लिए मार्तड स्वरूप, मोक्षरूपी द्वार के कपाट तोड़ने को वन वंड स्वरूप, दुरि विषय रूपी विषधर के लिए गरुड़ के समान, कर्म रूपी शिर
छेदने के लिए चक्ररत्न समान, साधु रूपी कमलनी के विकास के लिए चन्द्रमा के तुल्य और माया 3 जाल रूपी गजराज के कुम्म स्थल विधारणे के लिए मृगेन्द्र की तरह, ऐसा आत्मा अजर अमर है, & सो मेरे ही घट में है, ऐसा मुनिराज सम्यग्दर्शन के धारी प्रयम निर्दोष पाँच महाव्रतों के मध्य में अहिंसा टू महावत को धारण करते हैं ।