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8 तत्पर हो जाता है। यहाँ श्री गुरु का उपदेश है कि यह जोध अनादि काल से आज तक जितने भी ४ & जीव सिद्ध पद को प्राप्त हुए हैं, वर्तमान में हो रहे हैं और आगे होंगे, वे सब इन बारह भावनाओं के
चिन्तवन कर ही निर्वाण को प्राप्त हुए हैं । अतएव यह भावनाओं का हो माहात्य जानना चाहिये। & द्वालाल
अब ग्रंथकार इस ढाल को पूर्ण कहते हुए आगे छटी ढाल में वर्णन किये जाने वाले विषय की भूमिका स्वरूप पद्य को कहते हैं :
सो धर्म मुनिन करि धरिये, तिनकी करतूति उचरिये । ताको सुनिके भवि प्रानी, अपनी अनुभूत पिछानी ॥१५॥
अर्थ-सफल चारित्र रूप पूर्ण धर्म को मुनि गण हो धारण करते हैं । इसलिए प्रागे की हाल में उन मुनियों की कर्तव्यभूत क्रियाओं का वर्णन किया जाता है । हे भव्य प्राणियों ! उन क्रियासों के उपदेश को सुनो जिससे कि अपने आत्मा की अनुभूति हो सके । इस प्रकार मुनि धर्म के लिए साधक 8 स्वरूप बारह भावनाओं का वर्णन करने वाली पांचवीं ढाल समाप्त हुई।
अब ग्रंथकार सकल चारित्र का वर्णन करते हुए सर्व प्रथम प्रांच महाव्रतों का वर्णन करते हैं--- षटकाय जीव न हननते सब विधि दरब हिंसा टरी । रागादि भाव निवारित हिंसा न भावित अवतरी ॥ जिनके न लेश मृषा न जल मृण तू विना दीयो गहै ।
अठदश सहस विधिशीलधर चिदब्रह्ममै नित रमि रहे ॥१॥
अर्थ--मुनिराज पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति ये पांच स्थावर काय और त्रस काय 8 इन षट कायिक जीवों को हिंसा का मन, वचन, काय और कृत, कारित, अनुमोदना से त्याग कर &