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और धर्म से बाहमुख मा प्रवृत विषय कषाय रूप अशुभयोग रूप परिणाम परिणमता है तम वह १ आत्मा बहुत काल तक संसार में भटकता है। इसलिए यह अशुभयोग परिणाम सर्वथा हेय ही है। यह तो किसी प्रकार भी धर्म का अंग नहीं है और इसके फल से वे खोटे मनुष्य, तिर्यच और नारको इन 8 तीन गतियों में अनेक बार अनेक जन्म मरण के कलेगा रूप होते हुए सदा काल भटकते रहे और जब यह जीव शुभोपयोग रूप दान, पूजा, व्रत, संयमावि सराग परिणामों कर परिणमता हुआ परिणति को धारण करता है, तब इस आत्मा को शक्ति को से रोकी जाती है, इसलिए मोक्षमार्ग रूपी
कार्य करने को असमर्थ हो जाता है । यद्यपि शुभोपयोग व्यवहार चारित्र का अंग है, तो भी स्वर्गों के 8 8 सुखों को ही उत्पन्न करता है और अपने निजानन्द आत्मिक सुख से उलटा पराये आधीन संसार
संबन्धी इन्द्रियों से उत्पन्न होने वाले सुख का कारण है; क्योंकि यह परिणाम राग अंश से मिला हुआ है इस लिये संसारी सुख फल को ही देता है । और जिस आत्मा ने अपना और पर का भेद विज्ञान भले प्रकार जान लिया, श्रद्धान किया, और निज स्वरूप में हो आचरण किया है ऐसा मुनीश्वर शुद्धो- 8 पयोग वाला होता है, अर्थात् मन, इन्द्रियों की अभिलाषा रोककर छह काय के जीवों को रक्षा रूप अपने स्वरूप का प्राचरण संयम और द्वादश तप के बल कर, अपने स्वरूप को स्थिरता के प्रकाश से ज्ञानराज का देदीप्यमान होना, इन दोनो कर सहित तथा वीतराग परिणाम का परिणमता हुआ पर द्रव्य से रमण करने का परिणाम दूर कर उत्कृष्ट ज्ञान को कला को सहायता से इष्टानिष्ट रूप इन्द्रियों के विषयों में हर्ष विषाद नहीं करते हुए मुनि शुद्धोपयोगी कहा जाता है । यह शुद्धोपयोगी आत्मा, गुण स्थान प्रति शुद्ध होता हुआ सप्त गुण स्थान में सविकल्पी श्रेणी के सन्मुख फिर श्रेणी में अष्टमे गुण स्थानति निविकरूपी बारहवें गुण स्थान के अन्त में घातिया कर्म नाश कर केवलज्ञान को 8