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8 चाहिए, बिना सम्यग्दर्शन के ये सब मिथ्या है । इसके बिना किसी भी जीव के सच्चा तत, तप, शोल, 8
संयम सामायिक, प्रतिक्रमण और प्रात्याख्यान इत्यादि नहीं होता। क्योंकि प्रथम सम्यक्त्व पीछे व्रत कार्यकारी है। हत्यत्म हुए बिना तुम फतकना हो है । सम्यग्दृष्टि सदा वस्तु स्वभाव स्वतंत्र निर्पक्ष समझता है और अपनी पर्याय का स्वामी आधारभूत आत्म स्वभाव समझता है, आत्मा में त्रिकाली सामान्य ज्ञान है, वह उसे अपने आप हो विशेष रूप से कार्य करता है अर्थात् सामान्य ज्ञान हो विशेष
जान होकर परिणमता है, यह सामान्य ज्ञान का विशेष कार्य अपने स्वभाव के अवलम्बन से ही होता 8 है । यह सभ्यग्दृष्टि का विचार है, क्योंकि स्वभाव का साधन करे सो ही साधु है, ऐसी साधना करने
वाला जीव लोकान्तिक देव होता है । विशेष आगम से जानना, सम्यग्दर्शन को महिमा अगम अपार
है। यह विष्यष्टि ही भव का अन्त करने वाली है । इस जीद के दिव्यदृष्टि होने के बाद कुछ & काल विलंब हो तो एक, दो या तान भव धरना पड़े, परन्तु वे भव बिगड़े नहीं । इस दिव्य दृष्टि के ४ बल से जोस को नीच गति का बन्ध नहीं होता है, दिव्य दृष्टि मात्र पूर्ण आत्मा को हो स्वीकार 8
करती है । सम्यग्दर्शन, सम्यक्ज्ञान भी दिव्य दृष्टि के आधीन है, आत्म दर्शन, आत्म ज्ञान प्राप्ति का 8 मुख्य उपाय दिव्य दृष्टि हो है, दिव्य दृष्टि से मोक्ष, पर्याय दृष्टि से संसार होता है, ऐसे उत्तम देव &
सदा स्वों में विचार करता रहता है कि अनादि से यह प्रारमा स्वभाव सागर को श्रद्धा रुचि प्रतीत & न करके अनन्ते भव धर-धर भव सागर में मग्न रहा। आत्म स्वभाव की रुचि बिना भवसागर से पार & नहीं होता है, ये हो सब शास्त्रों का सार है।
दूसरी ढाल में सब से प्रथम चतुर्गति में परिभ्रमण का कारण लिखते हैंचौपाई- ऐसे मिथ्या दृग ज्ञान चरण, वश भ्रमत भरत दुख जन्म मरण ।