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6 जानने से जो आत्मा का बोध उत्पन्न होता है, उसमें जो दृढ़ श्रद्धान जागृत होकर, उसमें जो आत्मा
को तन्मयता हो जाती है, उसे अभेद रत्नत्रय या निश्चय मोक्षमार्ग कहते हैं। यह अवस्था वचन
व्यवहार से परे होती है इस लिए इसको अभेद रत्नत्रय कहते हैं अर्थात् आत्मा का निश्चय ही सम्धढाला
ग्दर्शन है । आत्मा का यथार्थ ज्ञान ही सम्यग्ज्ञान है और आत्मा में स्थिर होना ही सम्यक् चारित्र है। इस प्रकार के अभेद रत्नत्रय से कर्मों का बन्ध कसे हो सकता है ? अर्थात नहीं हो सकता है। यथार्थ में व्यवहार मोकमार्ग को जाने बिना निश्चय मोक्षमार्ग की प्राप्ति नहीं हो सकती है। इसलिए व्यवहार मोक्षमार्ग को निश्चय मोक्षमार्ग का कारण कहा है । अब व्यवहार सम्यग्दर्शम का स्वरूप लिखते हैंजोगीरासा-जीव अजीव तत्व अरू आस्ब, बधा संवर जानो ।
निर्जर पक्ष कहे जिन तिनको, ज्योंको त्यों सरधानो ॥ है सोई समकित व्यवहारी, अब इन रुप बखानो ।
तिनको सन सामान्य विशेष, दढ़ प्रतीत उर आनो ॥३॥ __ अर्थ-अहंन्त भगवान् ने जीव, अजीथ, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष, इन सात ४ तत्त्वों का जैसा स्वरूप कहा है, उनका ज्यों का त्यों श्रद्धान करना, सो व्यवहार सम्यग्दर्शन है । अब
आगे इन सातों तत्वों का सामान्य रूप से और विस्तार रूप से व्याख्यान किया जाता है, सो उसे ४ & सुनो और हृदय में विश्वास ताओ ? अब प्रथम जीव तत्व का वर्णन करते हैं:जोगीरासा-बहिरातम अंतर आतम परमातम जीव विधा है ।
देह जीव को एक गिन, बहिरातम तत्व मुधा है ॥
म. सायनात निविधि के अंतर मातमज्ञानी ।
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