________________
४ दान देने को अतिथि संविभाग शिक्षाणात कहते हैं । जिसके तिथि का विचार नहीं, जो सबा काल लू प्रतो है, शान ध्यान तप में लीन हैं, ऐसे मुनि को अतिथि कहते है, अपने भोजन आदि में से दान
देने को संविभाग पाहते हैं। इस काम के साए द सो गये हैं:-आहार दान, प्रौषधि दान, शास्त्र दान और अभयदान । शरीर के निर्वाह के लिए तथा निराकुलता पूर्वक धर्म साधन के लिए आहार और औषधि दान देने की आवश्यकता है, आरम ज्ञान की प्राप्ति के लिए शास्त्र दान की और आरम स्वरुप को प्राप्ति के लिये अभयदान को आवश्यकता है । अतएव श्रावकों को चारों प्रकार का दान विधि पूर्वक भक्ति के साथ पुण्योदय से उपलब्ध उत्तम, मध्यम और जघन्य पात्र को प्रतिदिन अवश्य देना चाहिये।
इस प्रकार धावक के बारह धत कहकर, उनके अतिचारों को छोड़ने और मरते समय सनयास धारण करने का विधान करते हुए श्रावक के ब्रतों का फल कहते हैं:
बारह मत के अंतीचार, पन पन न लगावै । मरन समय सन्यास धारि तसु दोष नशावै ॥ यौ श्रावक व्रत पाल स्वर्ग, सोलम उपजावै ।
तहत चय नरजन्म पाय मुनि हव शिव जावै ॥ १५ ॥ अर्थ-पहले कहे हुए अहिंसाणुप्रत आदि प्रत्येक व्रत के पांच पाँच अतिचार शास्त्रों में बतलाये गये हैं। उन्हें नहीं लगने देना चाहिए और मरण के समय सन्यास को धारण करके उसके भी दोषों को दूर करना चाहिए । इस प्रकार जो मनुष्य श्रावक के व्रतों को पालता है, वह मर कर के सोलहवं स्वर्ग तक उत्पन्न हो सकता है । और वहाँ से आय करके मनुष्य जन्म पाकर फिर मुनि धर्म को 8