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द्वाला
& होते । इसी प्रकार मिले हुए यह जीव और देह भी यथार्थ में एक नहीं हैं, भिन्न भिन्न ही हैं, जब 8
स मिले हुये वेह और जीव भी एक नहीं हैं तम प्रत्यक्ष दो भिन्म तिहाई देनेवाले ये भन्न पुत्र स्त्री प्रावि छह 8 कैसे अपने हो सकते हैं ? कदापि नहीं । अर्थात् संसार में माता, पिता, कुटुम्बी, परिवार जन, राजा, 8
मंत्री, सेठ, साहूकार, नौकर, चाकर, नानी, मामी, दासो, दास, स्त्री, ये सभी अपने आत्मा से न्यारे 8
है । वे सब इस लोक में अन्न पान वस्त्र देने में सहायक हैं, परन्तु परलोक में इस जीव के साथ नहीं & जा सकते । वेखो तो सभी जीव यह विचार करता है कि मेरा स्वामी आज मर गया, ऐसा मानता हुआ &
अन्य कोई दूसरे जीवों की तो चिन्ता सोच करता है, परन्तु आप संसार रूपो भव समुद्र में डूबते हुये & अपने आत्मा का सोच चिंता कुछ भी नहीं करता । देखो तो सहो, यह शरीर आदि भो अन्य है तो
बाह्म द्रश्य अन्य क्यों नहीं होंगे । इस लिये ज्ञान दर्शन गुण हो अपने आत्मा के हैं इस तरह अन्यत्व भावना का चिन्तवन करो।
भावार्थ-सदा साथ रहने वाले शरीर से भी प्रात्मा भिन्न है, ऐसा विचार करना सो अन्यत्व __ भावना है, क्योंकि शरीर ऐन्द्रियिक है आत्म अतीन्द्रिय है। शरीर जड़ है, आत्मा ज्ञाता दृष्टा है, शरीर
अनित्य है, आत्मा नित्य है, शरीर अपवित्र है, आत्मा पवित्र है, कर्मों से और शरीर से आत्मा सदा भिन्न चैतन्य स्वरूप है, जैसे म्यान से तलवार भिन्न होती है । ऐसा जानकर हे आत्मन् ! शरीर से ममता भाव विसार दे-छोड़दे, उसे अपना मत जान । किन्तु जो ज्ञाता दृष्टा प्रात्मा है, उसे ही अपना स्व स्वरूप समझकर उसको प्राप्ति का प्रयत्न कर । इस प्रकार आत्मा को बार बार चिन्तवन करने को 8 अन्यत्व भावना कहते हैं । इस भावना का चिन्तवन करने से शरीर आदि में निःस्पृहता पैदा होती है उससे आत्म तत्त्व ज्ञान जागृत होता है और फिर वह आत्मा मोक्ष की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करता 8