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छह
ढाला
इस आत्मज्ञान कला के
परमात्म
प्रकाश से श्रनेकान्त महा विद्या को निश्चय से धारण करके एक तत्व को पाकर परम आनन्द होओ ! यह परमात्मतत्व वचन से नहीं कहा जाता है केवल अनुभव
अपने अंतरंग में प्रकाश करो! जो यह धारा को धारण बहती हुई इस आत्म
गम्य है इसलिये इस चिदानन्द परमात्म तत्व को हमेशा श्रानन्द स्वरूप आत्मराम प्रमृतरूपी जल के प्रभावरूप पूर्ण करते हैं वही आत्मा श्रन्यत्व भावना को बार बार स्मरण करते हैं। वही अनेकान्तरूप प्रमाद से अनंत धर्म युक्त शुद्ध चिन्मात्र वस्तु तत्त्व उनका साक्षात् अनुभवी होते हैं, क्योंकि यह आत्मा अनादि काल से लेकर अब तक पुद्गलोक परवस्तु कर्म के निमित्त से मोहरूपी मदिरापान से मदोन्मत हुआ ससार चक्र में घूमता हुवा भव भ्रमण करता है । जैसे समुद्र अपने विकल्प तरंगों से सदा महा क्षोभित हुआ क्रम से परिवर्तन करता है। ऐसे ही यह आत्म प्रज्ञान भाव से परस्वरूप बाह्य पदार्थों में आत्म बुद्धि मानता हुवा मैत्री भाव करता है । अर्थात् आत्मबोध की शिथिलता से सर्व प्रकार बहिर्मुखं हुआ बार बार पुद्गलीक कर्म को पैदा करने वाला रागद्वेष मोह भावों में फँसा रहता है। इसलिये इस आत्मा को शुद्ध चिदानन्द परमात्मा की प्राप्ति कहाँ से हो सकती है ? यदि यही आत्मा अखंड ज्ञान के अभ्यास से अनादि पुद्गलोक कर्म से उत्पन्न हुषा जो मिथ्या राग द्वेष मोह है उसको त्याग कर रत्नत्रय की एकता से निज एकाग्रतारूप मोक्षमार्ग का सेवने वाला सुपात्र बन जाता है तो वही मुनि श्रन्यत्य भावना भाने से समर्थ होता है, वही भव्य उत्तम पात्र बनकर उत्तम फल का देने वाला जीवों का उद्धार करने में समर्थ होता है । अब प्रशुचि भावना लिखते हैं
पल रुधिर राध मल थैली, कोकस वसादि तें मैली ।
नव द्वार बहे घिनकारी, अस देह करें किम यारी ॥ ८ ॥
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