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है । ये आत्मा अपने चेतना स्वरूप परिमाणों का कर्ता हुआ, अपने चेतना स्वरूप भाव का करने वाला 8 & निश्चय से होता है जैसे कि अग्नि स्वभाव से लोहे के पिंड को ग्रहण करती हुई आप मय स्वरूप बना 8 8 देती है । जो जीव मुनिपद को धारण कर बोक्षित हुआ और संयम. तपस्या भी करता है लेकिन जो 8
गोह की अधिकता से शुद्ध मा राबहार को शिथिल करता है, अभिमान में मग्न हो घूम रहा है, 0
और संसारी कर्म-ज्योतिष, वैद्यक, मंत्र, यंत्रादिकों पर प्रवृत्तता है तो वह मुनि संयम तपस्या कर ४ 6 सहित हुआ भी भ्रष्ट लोकिक मुनि कहलाता है, ऐसे मुनि की संगति त्यागने योग्य है । इसलिए जो 8 उत्तम मुनि दुख से मुक्त होना चाहता है तो उस को चाहिये कि या तो गुणों में अपने समान हो या
अधिक हो ऐसे दोनों को संगति करे, अन्य की नहीं करे । जैसे शीतल घर में शीतल जल को रखने से शीतल गुण की रक्षा होती है । यह अति शीतल हो जाता है। उसी तरह गुणाधिक पुरुष को 8 संगति से गुण अधिक बढ़ते हैं । इसलिये उत्तम संगति करना योग्य है। मुनि को चाहिए कि पहली 8 अवस्था में तो पूर्व कही हुई शुभोपयोग से उत्पन्न प्रवृत्ति को स्वीकार करे, पीछे क्रम से संयम को उत्कृ8 ष्टता से परम दशा को धारण करे और विपरीताभाष को सर्व प्रकार से त्याग कर अन्यत्व भावना भावे । पर को अपना घातक जानकर भेद विज्ञान द्वारा अपने से जुदा करके केवल आत्म स्वरूप को भावना से निश्चल स्थिर होकर अपने स्वरूप में निरंतर समुद्र की तरह निष्कंप हुआ तिष्ठे। अपनी ४ ज्ञान शक्तियों कर बाह्य रूप ज्ञेय पदार्थों में मंत्री भाव नहीं करे तो निश्चल आत्म ज्ञान के प्रभाव पर
से अत्यन्त निज स्वरूप में सन्मुख होता तथा ज्ञानानन्द परम ब्रहम स्व स्वरूप को पाता है। और पुद् ४१ 8 गल कर्म, राम, द्वेष, मोह बंध के कारण द्विविधा से दूर रहता है, यह आप ही साधक है, पाप हो । & साध्य है, और यह सम्पूर्ण जगत के प्राणो भी ज्ञानानन्द स्वरूप परमात्म भाव को प्राप्त होगी अर्थात् ४