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8 से अधिक श्मसान (मघंट) तक साथ जाते हैं, और जलाने के लिए काष्ठादिक को मदद करते हैं ४
& अधिक नहीं और जिस लक्ष्मी के सञ्चय करने में रात दिन लगा रहता है, वह धन घर में पड़ा रहता 8 छह ल है एक उग मात्र भी साथ नहीं चलता और सिर्फ शरीर हो भस्म हो जाता है । इसलिए है आत्मन् ! डाला एक निजानन्द स्वरूप तेरा आत्म धर्म हो ऐसा है जो तेरा कभी साथ नहीं छोड़ता। वह पर भव में & भी साथ जाता है और अंत में संसार के दुःखों से छुड़ा देता है, अतएब प्रथम मन के द्वारा पांचों
इन्द्रियों से परोपदेश से, क्षयोपशम से पर्व के अभ्यास से या मर्यादिक के प्रकाश से अयोपशम ज्ञान
को उत्पन्न कर फिर जो कुछ कर्म जनित सामग्नी है वह सब पर द्रव्य रूप है उसे निवृत्ति रूप होकर 8 निज द्रव्य में ही प्रवृत्ति करता है, वही भेद विज्ञान पैदा करने का कारण है क्योंकि जो कुछ कर्मल
जनित बामग्री है वह सब पर द्रव्यरूप है इसलिये उससे निवृत्ति होकर निजद्रव्य आत्मधर्म उसमें ही 8 & प्रवृत्ति करनी चाहिए । स्वद्रव्य में प्रवृत्ति करने से अवश्य भेद विज्ञान प्राप्त होता है वह परभव में
भी साथ जाता है और अंत में संसार के दुखों से भी छुड़ा देता है इसीलिए उसीका शरण लेना
चाहिए । ऐसा विचार करने से न तो स्वजनों में मोह उत्पन्न होता है और न परजनों में द्वेष भाव 0 जागृत होता है किन्तु निःसंगता या एकाकी पना प्रगट होता है जिससे कि यह प्रात्मा आत्म कल्याण
के ही लिए प्रयत्न करता है । ऐसा बार बार चिन्तवन करना सो एकत्व भावना है। आगे अन्यत्व भावना का वर्णन करते हैं।
जलपय ज्यों जियतन मेला, पै भिन्न भिन्न नहि भेला । तो प्रकट जुदे धन धामा, क्यों बैइक मिलि सुत रामा॥७॥ अर्थ-जैसे जल और दूध मिलकर एक से दिखने लगते हैं, परन्तु पदार्थ में एक नहीं है