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शुभ अशुभ करम फल जेते, भोग जिय एकहि तेते । सुत दारा होय न सीरी, सब स्वारथके हैं भीरी ॥६॥
अर्थ-शुभ और अशुभ कर्म का जितना भी फल प्राप्त होता है, उसे यह जीव अकेला ही भोगता है । पुत्र मित्रादि कोई भी दुख का भागी नहीं होता, ये सब स्वार्थ के ही साथी हैं। अर्थात् ४ 0 बहिन भाई काका भतीजा मामा नाना माता पिता पुत्र पौत्र स्वजन परिजन दासी दास राजा राणा
मंत्री पुरोहित सेठ साहूकार, इनके मध्य में यह जीव अकेला हो रोगी-दुःखो हुआ मृत्यु के वश में पड़ा & परलोक को गमन करता है, इसके साथ कोई भी मनुष्य नहीं जाता है, क्योंकि यह जीव अकेला ही & शुभ अशुभ कर्म करता है, उस कर्म का फल अकेला ही दीर्घ संसार में अनन्त काल तक भुगतता है, अकेला ही जन्म लेता है और अकेला ही मरता है, इस तरह एकत्व भावना का चिन्तयन करो।
भावार्थयह जीव अकेला ही गर्भ में आता है और अकेला ही सन्मूर्छन, गर्भ, उपपाद में जन्म लेता है, अकेला ही बाल और युवा आदि अवस्था चारों गतियों में धारण करता है, अकेला & ही मनुष्य और तिर्यचों में जरा से जर्जरित वृद्ध रोगी शोको, होता है, और यह जी० अकेला ही नकं
तिथंच आदि को महान् वेदना को सहता है, संसार में सब प्राणी स्वारथ के साथी हैं, जब इस जीव के बिमारी आदि के होने पर स्वजन कुटुम्बी जन सब के सब प्रांखों से दुःखों को देखते हुए भी लेश मात्र भी कष्ट वेदना. को बांट नहीं सकते । यह जीव ऐसा जानते हुए भी आश्चर्य है कि संसार क कुटुम्ब आदि के जीव ममता को नहीं छोड़ता है और समता को नहीं ग्रहण करता है, यह मेरा और
यह मेरा करता हुआ रात दिन कुटुम्ब परिवार के निमित्त पाप-भार को सञ्चित किया करता है परन्तु 8 जिन वस्तुओं का संग्रह बन्धुजनों के लिए करता है और दीर्घ पाप उपार्जन करता है वे अधिक