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(१) द्रव्य परिवर्तन–ज्ञानावरणादि आठ कर्मों के रूप परिणत होने वाले पुद्गल द्रव्य को कर्म द्रव्य कहते हैं, और औदारिकादि तोन शरीर और छह पर्याप्तियों के रूप परिणत होने वाले पुद्-है गल द्रव्य को नो कर्म द्रव्य कहते हैं । इन दोनों प्रकार के पुद्गल का प्रमाण अनन्त है । इनमें से ऐसा एक भी पुद्गल नहीं बचा है, जिसे इस जोब ने क्रम से भोग भोगकर अनन्तबार न छोड़ दिया हो इसी का नाम द्रव्य परिवर्तन है ।।
(२) क्षेत्र परिवर्तन-इस त्रिलोक व्यापी लोकाकाश के असंख्यात प्रदेशों में से ऐसा एक भी प्रदेश बाकी नहीं रहा जहाँ यह जीव अनन्त बार न उत्पन्न हुआ हो और अनन्त बार नहीं मरा हो X इसी का नाम क्षेत्र परिवर्तन है।
काल परिवर्तन... कोका कोड़ी सागरों का एक उत्सपिरणी काल होता है, और इतने हो समय का एक अवसपिणी काल होता है । इन दोनों कालों के समय में ऐसा एक भी समय बाकी नहीं बचा है जिनमें यह जीव क्रम से अनन्त बार जन्मा और अनन्त बार न मरा हो इस प्रकार काल के आश्रय जो परिवर्तन होता है उसे काल परिवर्तन कहते हैं ।
(४) भव परिवर्तन-नरक भव को सब से जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष की है और सब से उत्कष्ट स्थिति तेतीस सागर की है। तहां सबसे प्रथम जघन्य स्थिति उत्पन्न होकर प्रथम नर्क के प्रथम प्रस्तार में दश हजार वर्ष को स्थिति भोगकर मरा और अन्य गति में जन्म लिया फिर प्रथम अवस्था नरक ही प्राप्त हुआ ऐसे दश हजार वर्ष के समय तो वहां ही भवान्तर लेता रहा फिर दश हजार वर्ष एक समय में नर्क भोगा फिर अनेक योनियों में उपजा और मरा--या अन्य नरक में दो स्थिति 8 पाकर मरा ये भव को संख्या में नहीं हैं, फिर दश हजार वर्ष दो समय को प्रायु पाई यह संख्या में है।