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ल ऐसे नरफ भोगते हुए एक एक समय बढ़ाते हुए सातवें नकं को उत्कृष्ट आयु तेतीस सागर के दुःख ४
भोगे इन्हीं को नकं भव परावर्तन कहते हैं । इसी प्रकार तियंच और मनुष्यों की सर्व जघन्य स्थिति 8
अन्तर्मुहूर्त को बतलाई है उस स्थिति का धारक मनुष्य और तिर्यच होकर क्रमश: एक एक समय बालाल
बढ़ते हुए तिर्यचों में या चहुँगति में जन्मा और मरा फिर अनुक्रम से मनुष्य या तिर्यचों को उत्कृष्ट 8 हँ स्थिति तीन पल्प को भोगता हुमा परावर्तन करता है । देवों में इसी प्रकार जघन्य दस हजार वर्ष को 8
स्थिति से लगाकर उत्कृष्ट मिण्यादृष्टि देवों को इकतीस सागर को स्थिति तक एक एक समय बढ़ते हुए समस्त स्थिति का ,धारक देव हुमा इस प्रकार चारों गतियों को जान्य स्थिति से लेकर उत्कृष्ट स्थिति तक की समस्त पर्यायों के धारण करने को भव परिवर्तन
इस जीव ने इस प्रकार के अनन्त भव परिवर्तन आज तक किये हैं ।
(५) भाव परिवर्तन-प्रकृति मन्ध, स्थिति बन्ध अनुभाग बन्ध और प्रदेश बन्ध, इन चार ४ 3 प्रकार फर्म बन्ध के कारणभूत जो भाव होते हैं, उन्हें अध्यवसाय स्थान कहते हैं। वे प्रत्येक असंख्यात
लोकों के जितने प्रवेश है तरप्रमाण होते हैं । इन समस्त अध्यवसाय स्थानों के द्वारा मिथ्यात्वी जीवों 8 के सम्भव कर्मों को जघन्य स्थिति से लेकर उत्कृष्ट स्थिति तक के बन्ध करने को एक भाव परिवर्तन कहते हैं । इस प्रकार के अनन्त भाष परिवर्तन जीव ने आज तक किये हैं। यह जीव इन पांचों हो परिवर्तनों को सदा काल करता हुआ संसार चक्र में परिभ्रमण करता रहता है और नाना प्रकार के दुःख भोगता फिरता है। इस प्रकार संसार असार खार का विचार करना सो संसार भावना है जिससे कि वह संसार से छूटने के लिए प्रयत्न करता है । अब आगे एकत्त्व भावना का वर्णन लिखते हैं ।