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छह
हाला
दान देता है, वही सम्महृष्टि श्रावक है । आहार दान मात्र देने से ही श्रावक धन्य कहलाता है और देवताओं से पंचाश्चर्य को प्राप्त होता है देवताओं से पूज्य होता है। फिर वह बान के फल से त्रिलोक में सार भूत उत्तम सुखों को भोगता है । सुपात्र जिन लिंग को देखकर उसको पात्र समझ कर भक्ति भाव और श्रद्धा पूर्वक नवधा भक्ति से आहाराविक दान को देना श्रावक का धर्म है इन सुपात्रों को दान प्रदान करने से नियम से भोग भूमि तथा स्वर्ग के सर्वोत्तम सुख की प्राप्ति होती है और अनुक्रम से मोक्ष सुख की प्राप्ति होती है। ऐसा श्री जिनेन्द्र भगवान् ने परमागम में कहा है। जो मनुष्य उत्तम बीज को बोता है तो उसका फल मन वांच्छित पूर्ण रूप से प्राप्त होता है ।
भावार्थ - उत्तम कुल, सुन्दर स्वरूप, शुभलक्षण, श्रेष्ठबुद्धि, उत्तम निर्दोष शिक्षा उत्तम शील राजा प्रजा मान्य उत्कृष्ट गुण, अच्छा सम्यक् चारित शान्त स्वभाव, उत्तम शुभ लेश्या शुभ नाम और समस्त पुत्र पौत्रावि परिवार शुभ लक्षण समस्त प्रकार के भोगोपभोग की सामग्री सुख के सब साधन सुपात्र दान के फल से प्राप्त होता है । आगे ग्रन्थकार ने अन्त में जिस समाधिमरण की ओर संकेत किया है उसका यहाँ संकेत में वर्णन किया है । जीवन का अन्त श्रा जाने पर या महान heatre रोग उत्पन्न होने पर या उपसर्ग, बुढ़ापा आदि आ जाने पर धर्म की रक्षा के लिए अपने शरीर के त्याग करने को सन्यास कहते हैं । समाधिमरण और सल्लेखना भी इसके नाम हैं । सम्यक् प्रकार शरीर के व्यास (त्याग) को सन्यास कहते हैं । सावधानीपूर्वक मरना सो समाधिमरण है । काय और कषाय को भले प्रकार से कुश करना सल्लेखना कहलाता है । इसे सल्लेखना या समाधिमरण की विधि यह है कि जब अपना मरण निश्चित जानले तब अपने सब कुटुम्ब परिवार और बन्धु वर्ग स्वजन परिजनों से स्नेह छोड़ दे, शत्रुओं से वैर भाव छोड़ दे और अत्यन्त विनम्र