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समाधिमरण के अतिचार-समाधिमरण स्वीकार कर लेने के पश्चात् शरीर को स्वस्थ होता ४ हुआ देखकर जीने को इच्छा करना सो जीवतशंसा नाम का पहला अतिचार है। सन्यास धारण करने के पीछे शरीर में रोगादि उपद्रव बढ़ जाने के कारण उनका कष्ट न सह सकने से अधीर हो जल्दो मरने की आकांक्षा करना, सो मरण शंसा नाम का दूसरा अतिचार है । समाधिमरण धारण करने के
पोछे भूख प्यास आदि को पीड़ा से डरना इहलोक भय है । इस प्रकार की दुद्धर कठिन तपस्या का & फल मुझे परलोक में मिलेगा कि नहीं, ऐसा विचार करना सो परलोक भय है । इस प्रकार के सातो भयों & से व्याकुल होना सो भय नाम का तीसरा अतिचार है । बचपन से लेकर आज तक जिन लोगों
के साथ मित्रता का स्नेह सम्बन्ध स्थापित था समा शय्या पर पड़े हुए उनकी याद करना सो मित्रास्मृति नाम का चौथा अतिचार है । समाधिमरण धारण करने के फल से आगामी भव में भोगादि को आकांक्षा करना निदान नाम का अतिचार है । समाधिमरण को धारण कर इन पांचों दोषों से बचना चाहिए । इस प्रकार निर्दोष श्रावक व्रतों को पालन करने वाला व्यक्ति नियम से सोलहवें स्वर्ग तक यथायोग्य देवेन्द्रादिके उत्कृष्ट पद पाता है और वहां से चपकर मनुष्य भव पाकर उसी भव में या सात आठ भव के पश्चात् नियम से मोक्ष जाता है । इसलिये सम्यग्दर्शन पूर्वक श्रावक व्रत अंगीकार कर पालन करेगा तो तुम्हारा अवश्य कल्याण होगा । चौथो ढाल समाप्तम् ।
अब पांचवीं ढाल लिखते हैं । ग्रंथकार इस ढाल में बारह भावनाओं का चिन्तवन करना वर्णन करते हैंचाल छंद-मुनि सकल प्रती बड़भागी, भव भोगन तै वैरागी ।
___ . वैराग्य उपावन माई, चिन्तो अनुप्रेक्षा माई ॥