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कामादिक कर वृषतें चिगते, निज पर को सु दृढादै ॥१२॥ धर्मी सो गउबच्छ प्रीति सम, कर जिन धर्म दिपावै ।
इन गुणते विपरीत दोष बमु, तिनको सतत खिपावै ॥ अर्थ-जिन भगवान् के वचनों में शंका नहीं करना निःशंकित अंग है । धर्म को धारण ५ करके सुखों को इच्छा न करना निःकांक्षित अंग है । मुनि के शरीर को मैला देख कर के घृणा न करना निर्विचिकित्सा अंग है । सांचे और झूठे तत्त्व को पहिचान करना अमूढ़ दृष्टि अंग हैं । अपने गुणों को और पराये औगुणों को ढकना और अपने धर्म को बढ़ाये रहना सो उपगूहन अंग है । काम विकार आदि कारणों से धर्म से डिगते हुए अपने आपको और दूसरे जनों को पुनः उसमें दूर
करना सो स्थितिकरण अंग है । साधर्मी जनों से बछड़े पर गाय के समान प्रेम करना सो वात्सल्य & अंग है । जैनधर्म का संसार में प्रकाश फैलाना सो प्रभावना अंग है। इस प्रकार सम्यग्दर्शन के आठ & अंगों का संक्षेप में वर्णन किया। भावार्थ-धर्म का मूल आधार सम्यग्दर्शन है और इस सम्यग्दर्शन & का भी मूल आधार उसके पाठ अंगों का बतलाया गया है । जिस प्रकार किसो सुन्दर मकान के
आधार भूत आठ खंभे होते हैं, अथवा शरीर के जैसे आठ अंग बतलाये गए हैं। उसी प्रकार सम्यग्दर्शन के भी आठ अंग बतलाये गए हैं कि जिस प्रकार एक अक्षर से भी होन मंत्र विष को घेदना
को दूर नहीं कर सकता, उसी प्रकार एक भी अंग से हीन सम्यग्दर्शन संसार का उच्छेद नहीं कर 8 सकता है। इसलिए सम्यग्दृष्टि को आठों अंगों का पालन करना आवश्यक है । उन अंगों का विशेष
स्वरूप इस प्रकार है कि स्व पर विवेक पूर्णक जब हेय और उपादेय तत्त्वों का पूर्ण निश्चय हो जाता र है, तब सन्मार्ग पर जो निश्चयात्मक दृढ़ प्रतीति या श्रद्धा होती है उसे ही निःशंकित अंग कहते हैं।