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. भावार्थ-पदार्य के स्वरूप को यथार्थ जानने को समयाज्ञान कहते हैं । यह सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन 8 8 के समान ही आत्मा का निज स्वरूप है, इसलिए अब आत्मा में सम्यादर्शन गुण प्रकट होता है तभी
सम्यग्ज्ञान भी प्रकट हो जाता है । अर्थात् मिथ्यात्व दशा में जो मति, श्रुत आदि ज्ञान थे और सम्यग्दर्शन न प्रकट होने से अभी तक मिथ्या ज्ञान कहलाते थे वे ही सभ्यग्दर्शन प्रकट होने के प्रभाव से सम्यकज्ञान कहलाने लगते हैं । अन्य कोई भेद नहीं जानना चाहिए । अर्थात् सम्यग्रष्टि जीव प्रयोजन भूत जीवादि तत्त्वों के यथार्थ स्वरूप का जानकार होता है, इसलिए अन्य पदार्थ जो उसके
जानने में आते हैं वह उन सबका यथार्थ रूप ही श्रदान करता है, अतएव उसका ज्ञान सच्चा कहलाता & है। किन्तु मिथ्यादृष्टि जीव जीवावि मूल-तत्त्वों के पथार्थ ज्ञान से रहित होता है, इसलिए अन्य
अप्रयोजनीय जो पदार्थ उसके जानने में आते हैं, यह उनको भी अयथायं ही जानता है । इसी कारण उसका ज्ञान मिथ्या कहलाता है । मिथ्या दृष्टि का जान अनिश्चित होता है, सम्यग्दृष्टि के
समान पदार्थों को जानते हुए भी उसके ज्ञान में पदार्थों के यथार्थ स्वरूप को जानने की कमी रहती 8 0 है । मिथ्या दृष्टि का ज्ञान कारण विपर्यास, भेरा-भेद विपर्यास और स्वरूप-विपर्यास रूप होने के ल
कारण मिथ्याज्ञान कहलाता है । इन तीनों का संक्षिप्त स्वरूप क्रमशः इस प्रकार आनना चाहिए:कारण विपर्यास-पदार्थों को अवस्थाएँ प्रतिक्षण बदसती रहती हैं । उनका यथार्थ कारण क्या है ? 8 इस बार के यथार्थ ज्ञान न होने को या उसके अन्य मतावलम्बियों द्वारा माने गये विपरीत कारणों को मानना सो कारण विपर्यास है। जैसे--रूपी जड़ पदार्थों का भी मूल कारण एक अमूर्तिक नित्य-28 ब्रह्म को मानना, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु के शरीराकार परिणत परमाणुओं को भिन्न-भिन्न मानना 8 समस्त संसारो जीवों को एक परमात्मा के अंश मानना, चेतन को अपरिणमनशील मानना । क्रोध,