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8 के भय होने से हो यह ज्ञान प्रकट होता है, अतएव यह क्षायिक ज्ञान कहलाता है इसके द्वारा
पदार्थों को जानने के लिये इन्द्रियों को आवश्यकता नहीं होती, अतएव इसे अतीन्द्रिय ज्ञान कहते हैं। 8 छह ४ इसके प्रकट होने पर मतिश न आदि चारों क्षयोपशमिक ज्ञान नष्ट हो जाता है, केवल एक मात्र ये हो ढाला
शान रह जाता है. इसी लिए इसको केवलनान कहते हैं । अरहन्त और सिद्ध भगवान् के यह कान होता है, अन्य के नहीं । छहढालाकार कहते हैं कि ज्ञान के समान अन्य कोई पदार्थ सुख का कारण नहीं है । यथा में सुख का सम्बन्ध या उसका अाधार मान हो है । यथार्थ में सुख की प्राप्ति न से ही है, जिसको जितना यथार्थ ज्ञान होता जाता है, उसे उतने ही परिमाण में सुख भी बढ़ता जाता
है । जो कोई एक भी शास्त्र को अच्छी तरह से जानने वाला मनुष्य अत्यन्त सन्तोष या परम & आनन्द का अनुभव करता है तो जो संसार के समस्त पदार्थों को प्रत्यक्ष जान और देख रहा है
वह कितना अधिक अानन्द और सुख का अनुभव नहीं करेगा ? कह्न का सारांश यह है कि जिसके अनन्त ज्ञान होता है उसी को अनन्त सुख भी होता है । अब शान को महत्ता वाले मनुष्य को कहते हैं । जो मनुष्य देव मूढ़ता, गुरु मूदता, और लोक मढ़ता, माया, मिथ्या, निवान, शल्य, राग, द्वेष, मोहः मन, वचन, काय तीन दण्ड, तीन गर्व से रहित और रत्नत्रय, अधःकरण, अपूर्व करण, अनिवृत्तकरण से सुशोभित है और मन, बचन, काय शुद्ध है, तथा शुद्ध रोति से तीतों गुप्तियों का पालन करता है, अठाइस मूल गुरण, चौरासी लक्ष उत्तर गुण, दशलक्षण धर्मयुक्त, सम्यग्दर्शन, सम्यशान, सम्यक्-- चारित्रयुक्त, ममता परिणामी, शान्त स्वभावी, संयम साधन में उद्यमी, क्षायक श्रेणी में चढ़ने को उद्यमी, दयावन्त, संसार शरीर के भोग के विषय से उदासीन, पंचेन्द्रियों के विषय भोगों से परान्मुख, यहा दिनय-- वान, धर्म के धारी, देशावधि, परमावधि, सर्बावधि ऋजुमति मनःपर्यय ज्ञानो, विपुलमति मनःपर्यय