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8 विविक्षत पद्य को उसी छन्द के राग से पढ़ना ग्रन्थाचार है । २ अर्थाचार--ग्रंथ के यथार्थ शुद्ध अर्थ ४
के निश्चय करने को अर्थाचार कहते हैं। ३ उभयाचार - मूल ग्रंथ और उसका अर्थ इन दोनों के 8 शुद्ध पठन पाठन और अभ्यास या धारण करने को उभयाचार कहते हैं । ४ कालाचार-अध्ययन के लिए जिस समय को शास्त्रकारों ने अकाल कहा है उस समय को छोड़कर उत्तम योग्य काल में पठन पाठन कर ज्ञान के विचार करने को कालाचार कहते हैं । ५ विनयाचार--शुद्ध जल से हाथ पांव भोकर निर्जन्तु स्वच्छ एवं निरूपद्रव स्थान में पद्मासन बैठकर विनयपूर्वक शास्त्राभ्यास तत्त्व चिन्तवत आदि करने को विनयाचार कहते हैं । ६ उपधानाचार:-धारणा सहित ज्ञान को आराधना करने को उपधानाचार कहते हैं । अर्थात् जो कुछ पढ़े उसे भूल न जावे याद रखे । ७ बहुमानाचार.. ज्ञान और ज्ञान के साधन शास्त्र पुस्तक गुरु आदि का पूर्ण सम्मान करना बहुमानाचार है । ८ अन्हिनवाचार-जिस गुरु से या जिस शास्त्र से ज्ञान प्राप्त करे उसके नाम को न छिपाने को अन्हि-- नवाचार कहते हैं। इन पाठों को धारण कर उनका अच्छी तरह पालन करते हुए हो सम्यक्-- ज्ञान की आराधना करनी चाहिए, तभी वह स्थिर रहता है और वास्तविक फल को देता है । यह ल जीव चतुर्गति में एकन्द्रिय पर्याय से निकल कर अधिक से अधिक दो हजार मागर तक पर्याप्त ४ अवस्था में रहता है इतने समय के भीतर यदि वह संसार परिभ्रमण से छूटकर सिद्ध हो गया तब तो
ठीक है अन्यथा फिर नियम से एन्द्रिय पर्याय निगोद में चला जाना होगा और वहां असंख्यात लेप & काल तक फिर जन्म मरण करता हुआ पड़ा रहना होगा, जो कि त्रस पर्याय को दो हजार सागर की
काय स्थिति बतलाई है । उसमें से बहु भाग समय तो द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, आदि क्षुद्र जोव जन्तुओं ४ & की पर्यायों के भीतर घूमने में ही चला जाता है । पंचेन्द्रिय पर्याय के लिये बहुत कम समय बतलाया ४