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ज्ञानी, महाक्षमावात, अष्ट महारिद्धिधारी, मुनिराज ही केवल ज्ञान वस्तु के पात्र होते हैं । अव ज्ञान की महत्ता सलाते ए आत्मज्ञान को सर्वश्रेष्ठता सिद्ध करते हैं ।
कोटि जनम तप तपैं, ज्ञान बिन कम झरै जे । ज्ञानी के छिन मांहि निगप्ति ते सहज टरै जे । मनि प्रत धार अनन्त वार ग्रीवक उपजायो ।
पै निज आतम ज्ञान बिना सख लेश न पायो ॥४॥ ___ अर्थ--अज्ञानी जीव आत्म ज्ञान के बिना करोड़ों जन्मों में तप करके जितने कर्मों को निर्जरा करता है, उतने कर्मों की निर्जरा ज्ञानी पुरुष के मन वचन काय को वश में करने से एक भला भर में अनायास सहज ही हो जाती है। यह जीव मुनिव्रत को धारण कर अनन्त वार नव वेयक तक उत्पन्न हो चुका है, तथापि अपनी आत्मा के यथार्थ ज्ञान के बिना इसने लेशमात्र भी यथार्थ सुख नहीं पाया।
तातें जिनवर कथित, तत्व अभ्यास करीजै । संशय विनम मोह, त्याग आपो लख लीजै । यह मानुष पर्याय सकल सनिवो जिन वानी ।
इह विधि गये न मिले, समणि ज्यों उदधि समानि ॥५॥ अर्थ-इसलिये जिन भगवान के द्वारा कहे गये तत्त्वों का अभ्यास करना चाहिए। और 8 संशय, विभ्रम तथा अनधयवसाय का स्याग कर आत्मा के स्वरूप का अनुभव करना चाहिए। यह मनुष्य पर्याय, उत्तम कुल, जिन वाणी का सुनना, ये सब सुयोग यदि यो हो वृथा चले गये तो वे 8