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समुद्र में समा गए हुए उसम रत्न के समान फिर नहीं मिल सकेंगे ।
भावार्थ---ग्रन्थकार यहाँ सम्यक् ज्ञान को अराधना के लिए उपदेश देते हैं कि सम्यक् ज्ञान को प्राप्ति के लिये जिन भगवान द्वारा उपदृष्टि सात तत्त्वों का संशय विभ्रम और मोह को त्याग कर अभ्यास करना चाहिए, क्योंकि यह सात तत्त्व ही प्रयोजनभूत हैं, प्रात्मा के इष्ट सिद्धि के साधक है। संशय आदि का स्वरूप इस प्रकार जानना चाहिए । परस्पर विरोधी अनेक कोटि के स्पर्श करने ल वाले ज्ञान को संशय कहते हैं। जैसे दूर पड़े हुए किसी चमकीले पदार्थों को देखकर संदेह करनाल कि यह सीप हैं या चांदी । विपरीत एक कोटि के निश्चय करने वाले ज्ञान को विभ्रम कहते हैं । जैसे सोप को चांदी समझ लेना इसी का दूसरा नाम विपर्यय या विपरीत ज्ञान है । वस्तु सम्बन्धी पथार्थ ज्ञान के प्रभाव को मोह या विमोह कहते हैं । जैसे मार्ग में चलते समय किसी वस्तु का स्पर्श होने पर उसका यर्थाथ निर्णय न कर, सोचना कि कुछ होगा । इसको अनध्यवसाय भी कहते हैं। ले ये तीनों मिथ्याजान कहलाते हैं, क्योंकि वे वस्तु के स्वरूप का यथार्थ ज्ञान नहीं कराते । सब साधारण लोगों को प्रवृत्ति प्रायः इन तीनों मिथ्या ज्ञानों के अनुरूप पाई जाती है । इसीलिये ग्रन्थकार कहते हैं कि इन तीनों अज्ञानों को दूरकर और यह निश्चय कर कि जिनोपदृष्टि तत्व हो सत्य है । उसका अभ्यास करके अपने पाप को लखना चाहिए कि मैं कौन हूँ मेरा क्या स्वरूप है और मुझे क्या प्राप्त करना है। यहां पर एक बात खास तौर पर ध्यान रखने को है कि तत्व ज्ञान के साधक शास्त्रों का अभ्यास सम्पज्ञान के आठ अंगो के धारण करने के साथ ही करना चाहिए, तभी स्थाई और, यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति होती है । सभ्यज्ञान के ये आठ अंग इस प्रकार हैं--१ प्रन्थाचार-व्याकरण के अनुसार अक्षर, पद, मात्रादि का शुद्धत्ता पूर्वक पठन-पाठन करना । छन्द शास्त्र के अनुसार