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.8 होने पर भी भिन्न-२ हैं एक नहीं जब तक अपनी आत्मा का जानकार नहीं है तब तक शुद्ध स्वरूप
& की प्राप्ति नहीं होती है। क्योंकि कर्मों का नाश दुःख की निवृति और सुख की प्राप्ति आत्मा स्वरूप छह 8 में परिणति होने से होती है । को अपनो आत्मा को नहीं देखता और नहीं जानता है, न आत्मा
के स्वरूप को अपने भावों में लगाता है, न अचान करता है और न पह आत्मा अपनी आत्मा परिणति में लवलीन तल्लीन होता है, तो फिर वह अनन्त संसार का हो पात्र है । उसको अनन्त
सुख की प्राप्ति भी नहीं होती है । अति गदा आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप टकोत्कीर्ण ज्ञायक 8 स्वभाव आत्मा को जान लेता है, अपने शुद्ध चिदानन्द स्वरूप को प्राप्त हो जाता है, उसी समय
अनन्त मुख स्वयमेव प्राप्त हो जाता है, ऐसा ज्ञानराज का स्वराज है, वहीं निवास करो । रोला छन्द २४ मात्रा-सम्यक साथ ज्ञान होय, पै भिन्न आराधो ।
लक्षण श्रद्धा जान, दुहमें भेद अवाधौ ॥ सम्यककारण जान, ज्ञान कारज है सोई ।।
युगपद होते ह, प्रकाश दीपकतै होई ॥१॥ अर्थ – यद्यपि सम्यग्दर्शन के साथ ही सम्याज्ञान उत्पन्न होता है तथापि उन दोनों का भिन्न भिन्न ही आराधन करना चाहिए । क्योंकि सम्यग्दर्शन का लक्षण यथार्थ श्रद्धान करना है और सम्यग्ज्ञान का लक्षण यथार्थ जानना है, इस प्रकार दोनों में अवाधित भेव है। सम्यग्दर्शन कारण है और सम्यग्ज्ञान उसका कार्य जानना चाहिए । इन दोनों के एक साथ उत्पन्न होने पर भी बीपक और
प्रकाश के समान उनमें कार्य कारण भाव है जिस प्रकार बीपक का जलना और उसका प्रकाश एक 3 ही समय में प्रकट होता है तो भी वोपक का जलना कारण है और प्रकाश उसका कार्य है ।