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छह हाला
इच्छा करना कांक्षा दोष है । धार्मिक जनों के शरीर को उनके मैले कुचले भेष भूषा को देख कर म्यानि कत्मा किसी अपंग लंगड़े लूले को देख कर घृणा करना विचिकित्सा दोष है । तत्य असत्य का निर्णय न करके यदा तदा विश्वास कर लेना मूढता दोष है । दूसरों के दोष और अपने गुण प्रकट करना अनुपन दोष है । लौकिक लालसा के वश होकर सत्य मार्ग से गिरते हुए लोगों को उनमें स्थिर नहीं करना या उनकी उपेक्षा करना अस्थितिकरण दोष है । गुणी और धर्मात्मा पुरुषों को देख कर भी प्रमुदित नहीं होना, आनन्दित या उल्लासित नहीं होना अवात्सल्य दोष है । सामर्थ्यवान् होकर भी सत्य मार्ग की संसार में प्रभावना नहीं करना, अज्ञान के नाश के लिए प्रयत्न नहीं करना अप्रभावना दोष है । सम्यग्दर्शन के धारकों का परम कर्तव्य है कि वे इन भ्रष्ठों दोषों को दूर करें। और सम्यग्दर्शन में निर्मलता बढ़ाने के लिए प्रशम, संवेग, अनुकंपा और अस्तिक्य इन चार गुणों को और भी धारण करना चाहिए. यहां राग द्वेष परिणामों की कमी को प्रदाम कहते हैं। यदि किसी ने बड़ा अपराध भी कर दिया है तो भी उससे बदला ले लेने का भाव नहीं होना प्रशम गुण है । इस गुण के प्रभाव से आत्मा में परम शान्ति जागृत होती है। यद्यपि सम्यग्दृष्टि जीव को भी आरंभादि के निमित्त से कभी कदाचित् उत्तेजना या कषायोद्रक हो जाता है, तथापि वह अल्पकाल स्थायी होता है, उसमें कषश्यों की तीव्र वासना नहीं होती है, इसलिए उसके प्रशम गुण का विनाश नहीं होता है । संसार में भयभीत रहना, उसमें आसक्त नहीं होना, सो संवेग कहलाता है, किसी आचार्य ने धर्म और धर्म के फल में परम उत्साह रखने को भी संवेग कहा है। जो साधर्मो जनों में अनुराग और पंच परमेष्ठी में भक्ति या प्रीत का भी संवेग माना है। इस गुण के हो कारण सम्यग्दृष्टि जीय में अनाशक्ति भाव जागृत होता है, और वह संसारिक कार्यों में उदासीन और पारमार्थिक कार्यों में वह उत्साह रखने