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छह
ढाला
भेद नहीं होता और भेद बिना अभेद नहीं है होता । नित्य बिना अनित्य नहीं और आता नहीं, शान में
। अखंड बिना खंड नहीं और खंड बिना अखंड नहीं अनित्य बिना नित्य नहीं, यह मर्यादा है, क्योंकि ज्ञान ज्ञेय में को अपनाता नहीं और अज्ञानी पर को अपनाना छोड़ता नहीं, इसलिए पर अपना होता नहीं और स्व स्वरूप कहीं जाता नहीं है । इसलिए स्वद्रव्य निश्चय है और परिणमन व्यवहार है तब गुरण निश्चय और पर्याय व्यवहार है, इसी से स्वाश्रित निश्चय हुआ और पराश्रित व्यवहार हुआ, ऐसे हो अभेद, पूर्ण, ध ुव, सहज स्वभाव, साध्य, निर्पेक्ष सामान्य है, स्व, ये निश्चय वाचक है और भेद, अपूर्ण, अध्ध्र व क्रमवद्ध, साधन, सापेक्ष, विशेष, होना, पर को जानना, व्यवहार है। शुद्ध निश्चय नय से चेतना भाव का कर्ता है, अशुद्ध निश्चय नय रागादिक भावों का कर्ता है, व्यवहार नय से शरीर का कर्ता है, ऐसा समझना ही सम्यक्त्व है । सम्यक्त्व को पाना, ज्ञान को जानना और चरित्र की विशुद्धता, ये तीनों एकत्र होते ही मोक्ष मार्गानुसारी आत्मा हो जाता है। अन्य कुदेवादि हमारे हितैषी नहीं हो सकते, क्योंकि वे परागो हैं, वे राग, द्वेष, मोह, मद छल, प्रपंच और ईर्ष्या से परिपूर्ण हैं । इसलिये उनके कहे हुए वचन भी मानने के योग्य नहीं हैं, जो स्वयं असत्मार्ग पर चल रहे हैं ये कैसे औरों का उद्धार कर सकते हैं । ऐसा जानकर कुगुरु, कुदेव, कुशास्त्र और कुकार्य का सेवन छोड़ कर सच्चे देव, शास्त्र, गुरु और धर्म का विश्वास करना चाहिए और शक्ति के अनुसार उनके बतलाये मार्ग पर चलना चाहिये तथा प्रागे कहे जाने वाले आठ अंगों को अवश्य धारण करना चाहिए। तभी जाकर व्यवहार सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होगो । जब जीव के इस व्यवहार सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हो जाती है तो निश्चय सम्यक् दर्शन की योग्यता उसमें सहज ही उत्पन्न हो जाती है, फिर उसके लिए पृथक् परिश्रम नहीं करना पड़ता है। जिस प्रकार एक सम्यग्दर्शन