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छह
ढाला
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आवि महान् ऋद्धिधारी देयों में उत्पन्न होता है । इस सम्यग्दर्शन की महिमा में आचार्य ने बड़े बड़े ग्रन्थों की रचना की है। इसे धर्मरूप वृक्ष को जड़ कहा है। मोक्ष - महल को प्रथम सीढ़ी कहा है । इसे हो परम पुरुष, पुरुषार्थ, परमपद, मानव तिलक आदि अनेक नामों से स्तवन किया है।
अक्षतीतं सुखं दधे ।
सम्यक्त्वं दुर्लभं लोके इस सम्यग्दर्शन को हो सर्भ इट अर्थको सिद्धि, अक्षातीत सुख, कल्याण का बीज माना गया है, इस सम्यग्दर्शन के धारण करने में कोई परिश्रम नहीं करना पड़ता है, न कोई कष्ट सहना पड़ता है । इसकी प्राप्त कितनी सीधी और सरल है कि जितना सरल और कोई लौकिक कार्य भी नहीं हो सकता । संसार के प्रत्येक कार्य के लिये महान् परिश्रम उठाना पड़ता है रात दिन एक करना पड़ता है, तब कहाँ कोई लौकिक कार्य सिद्ध होता है । परन्तु सम्यग्दर्शन की प्राप्ति को क्या चाहिए ? मिथ्यात्व और मूढ़ताओं को छोड़ दीजिए और अपनी तीव्र कषायों को मन्द कर लीजिए । शान्ति के साथ आत्म स्वरूप को समझ कर अन्तर दृष्टि दीजिए, यही बार बार कोशिश कीजिए, पर वस्तु से ममत्व तज दीजिए ये आत्म स्वभाव पर से भिन्न है ऐसा समझ लोजिए यही कल्याण का और सात तत्त्वों का ज्ञान प्राप्त कीजिए कि यही हमारे हितैषी हैं। इनके बतलाए मार्ग पर चलने से ही आत्मा का कल्याण हित होता है। सम्यग्दृष्टि को आदरने योग्य निज स्वभाव है । त्यागने योग्य पर स्वभाव है, क्योंकि निज सहज स्वभाव मिटता नहीं, नियम भंग नही होता है। सहज सुख स्वतः हो प्राप्त हो जाता है, कोई रोके तो रुकता नहीं है । स्वतन्त्रता स्वतः ही प्राप्त होती है और परतन्त्रता छूट जाती है क्योंकि अनहोनी होती नहीं, होनी हो सो वलतो नहीं है । निश्चिय बिना व्यवहार कार्यकारी नहीं है व्यवहार बिन निश्चिय में नहीं पहुँच सकते हैं । समझिये अभेद बिना
बीज है ।
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