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छह
ढाला
अर्थ - अगृहीत मिथ्यादर्शन और अगृहीत मिथ्या ज्ञान के साथ पांचों इन्द्रियों के विषयों में जो अनादि काल से प्रवृत्ति चली श्रा रही है, उसे अगृहीत मिथ्या चारित्र कहते हैं । इस प्रकार अगृहीत मिथ्यादर्शनादि का वर्णन लिखा, अब आगे गृहोत मिथ्यादर्शनादि का वर्णन किया जाता है। भावार्थ - विषयरूप कृषि हैं, वह सब मिथ्या चारित्र हैं। संसारी जीव की अनादि काल से ही इन विषय कषायों में अत्यन्त आशक्ति लिए हुये प्रवृत्ति पाई जाती है, यहां तक कि एकेन्द्रिय विकलेन्द्रिय जीवों तक में विषय कषाय की प्रवृत्ति स्पष्ट रूप से देखने में आती है। आहार, भय, मैथुन और परिग्रह इन चारों संज्ञाओं की प्रवृत्ति एकेन्द्रियों से लेकर पंचेद्रियों तक निराबाध रूप से पाई जाती है । मिध्यादृष्टि जीव को इस अनादि कालीन प्रवृत्तियों को ही यहां अगृहीत मिथ्याचारित्र कहा गया है। क्योंकि इन्द्रिय कषाय रूप प्रवृत्ति को किसी भी जीव ने इस जन्म में नवीन ग्रहण नहीं किया है, किन्तु सनातन से ही ऐसी प्रवृत्ति पाई जाती है। इस प्रकार यहां तक निसर्गज या गृहोत मिथ्या वर्शन, मिथ्या ज्ञान, और मिथ्या चारित्र का वर्णन किया गया, अब आगे गृहीत मिथ्या दर्शन, गृहोत मिथ्या ज्ञान और मिथ्या चारित्र का वर्णन किया जाता है। उनमें प्रथम गृहोत मिथ्या दर्शन का स्वरूप लिखते हैं । सो हे भव्य ! सुनो
पद्धरिछंद - जो कुगुरु कुदेव कुधर्म सेव, पोषै चिर दर्शन मोह एव । अंतर रागादिक धरै जेह, बाहर धन अंबरतें सनेह ॥ ६ ॥ धारै कुलिंग लहि महतभाव, तं कुगुरु जनम-जल उपल- नाव । जे राग रोष मल करि मलीन, वनिता गदादि जुत चिन्ह चीन ॥ १० ॥
ते हैं कुदेव तिनकी जु सेव, शठ करत न तिन भव भ्रमण छेव ।