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४ उक्त कुगुरु, कुदेव और कुधर्म की सेवा करने को गृहीत मिथ्या वर्शन जानना चाहिये, क्योंकि यह
& मिथ्यात्व इसी जन्म में ग्रहण किया गया है । भावार्थ-कुधर्म के स्वरूप में द्रव्य-भाव हिंसा का नाम है छह आया है, उसका विशेष खुलासा इस प्रकार है :-प्रमत्त योग से प्राणों के घात को हिंसा कहते हैं। वाला यह हिता दो प्रकार को होता है। द्रव्य हिसा और भाव हिंसा । किसी प्राणी को मारने का जो भाव ~ मन में जागृत होता है, उसे भाव हिंसा कहते हैं । पर प्राणी का घात चाहे न हो, पर ज्यों ही हमारे है
भाव राग द्वेषादि से कलुषित होकर दूसरे को मारने को होते हैं, वैसे ही हम भाव हिंसा के भागी बन जाते हैं । स्व पर प्राणी के द्रव्य शरीर के घात को द्रव्य हिंसा कहते हैं। अन्य मतावलम्बियों द्वारा धर्म कार्य रूप से प्रतिपादित यज्ञ प्रचुर परिणाम में द्रव्य और भाव हिंसा होती है। इसलिए यज्ञादिकों का करना कुधर्म बतलाया गया है । सच्चा धर्म तो यह है जिसके करने पर किसी भी प्राणी को रंवमात्र भी कष्ट न हो । सच्चा गुरु वह है, जो विषयों की आशा तृष्णा से रहित हो, सदा ज्ञान, ध्यान और तप में लवलीन रहता हो । इसी प्रकार सच्चा देव वह है जिसने राग द्वेष काम मोह पर पूरी तौर से विजय कर लिया हो और धोतराग पद प्राप्त कर लिया हो, अज्ञान भाव का सर्वथा नाश कर के सर्वज्ञ बन गया है और जो शणो मात्र के सच्चे हित उपदेशक हैं । इस प्रकार के लक्षणों से जो रहित हैं, ऐसे देव, गुरु और धर्म को मिथ्या हो जानना चाहिए । इन कुगुरु, कुवेव और कुधर्म को सेवा आराधना को गृहोत मिथ्यादर्शन कहा गया है । अब आगे गृहीत मिथ्या ज्ञान का स्वरूप लिखते हैं :पद्धरि छंद -एकांतवाद दूषित समस्त, विषयादिक पोषक अप्रशस्त ।
रागादि रचित श्रुत को अभ्यास, सो है कुबोध बहु देन त्रास॥१३॥