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हाल
रागादि भाव हिंसा समेत, दवित त्रस थावर मरन खेत ॥११॥ जे क्रिया तिन्हें जानहु कुधर्म, तिन सरधं जीव लहै अशर्म । याकौं गृहीत मिथ्यात्व जान, अब सुन गृहीत जो है कुज्ञान ॥१२॥
अर्थ-कुगुरु, कुदेव और कुधर्म की सेवा चाकरो चिरकाल के लिए बनि मोहनीय कर्म को पुष्ट करती है, ये हो सेवा उपासना करना हो गृहीत मिथ्यादर्शन है। अब आगे इन तीनों का क्रमशः ४ स्वरूप कहते हैं । जो अन्तरंग में राग द्वेष मोहादि धारण करते हैं और वहिरंग धन, वस्त्र घर संप
हादि पनिगह से शुमन हैं, जो अपना महंत भावपना प्रकट करने के लिए जटा, तिलक नाना प्रकार & को मुद्रा धारण करते हैं, उन्हें कुगुरु जानना चाहिए । ऐसे कुगुरु संसार रूपी समुद्र से पार उतारने के
लिए पत्थर को नाव समान हैं। पत्थर की नाद न रवयं तैर कर पार हो सकती है और न बैठने वाले & जीवों को पार लगा सकतो है। ऐसे ही कुगुरु न तो संसार समुद्र से स्वयं पार हो सकते हैं और न & अपने भक्तों को हो पार लगा सकते हैं । आगे कुवेव का स्वरूप लिखते हैं । जो देवता राग-द्वेष रूपी
महामंल से लिप्त हैं, मलीन हैं, स्त्रियों को साथ लिये फिरते हैं। शंक, चक्र, गदा, पद्य नाना प्रकार
के अस्त्र, बस्त्र और शस्त्रों को धारण करते हैं, उन्हें कुदेव जानना चाहिए । जो मुग्ध जीव ऐसे & छद्मस्थ ज्ञानी को देव मानकर सेवा-उपासना आदि करता है, उस आत्मा के संसार-परिभ्रमण का 8 अन्त कभी नहीं आ सकता है । क्योंकि जो स्वयं संसार-समुद्र में चक्कर लगा रहे हैं, वे दूसरों को कैसे
उतार सकते है। अब आगे कुधर्म का स्वरूप कहते हैं-जो क्रियाएँ राग द्वेष आदि भाव हिंसा से युक्त 8 है। जिनके करने में त्रप्त स्थावर जीवों को द्रव्य हिंसा होती है, उन क्रियाओं को कुधर्म कहते हैं । & क्योंकि द्रव्य-भाव हिंसा से व्याप्त कुधर्म का श्रद्धान करने से जीव दु:खों को ही पाता है। इस प्रकार