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ऐश्वर्म है, यह मेरे पुत्र हैं, यह मेरी स्त्री है, मैं सबल हूं, मैं निर्जल हूं, मैं मुरूप हूं, मैं कुरुप हूं, मैं पूर्ण & हूं और मैं बुद्धिमान हूं । कहने का सारांश यह है कि कर्मोदय से जब जिस प्रकार को अवस्था जीव 8 8 को प्राप्त होती है, मिथ्यावृष्टि जीव उसे ही अपने आत्मा का स्वरूप समझकर वैसा मानने लगता है &
और उसी में हो तन्मय हो जाता है, यही जीव तत्त्व का विपरीत श्रद्धान है । भावार्थ-जो सात 8 & तत्त्व ऊपर कहे गये हैं, उनका स्वरूप इस प्रकार है---चेतना लक्षण या ज्ञान दर्शन युक्त पदार्थों को 8 8 जीव कहते हैं यह जीव अरूपी अमूत्तिक है, क्योंकि इसमें रूप, रस, गंध और स्पर्श ये पुद्गल के 8
कोई भी गुण नहीं पाये जाते हैं । इसी कारण जीय आँखों से न दिखाई देता है और न अन्य 8 इन्द्रियों से ही जाना जाता है, अतएव इसे अतेन्द्रिय भी कहते हैं । जिसमें चेतना नहीं पाई जाती है
उसे अजीव तत्त्व कहते हैं । इसके पांच भेव हैं- पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, और काल । जिसमें रूप रस मन्ष और स्पर्श पाया जाता है, उसे पुद्गल कहते हैं । इन्द्रियों के द्वारा दृष्टि गोचर होने वाला समस्त जड़ पदार्थ पुद्गल है । जीव और पुद्गल के चलने में जो सहायक होता है, ऐसा त्रैलोक्यव्यापी सूक्ष्म अरूपी पदार्थ धर्म द्रव्य कहलाता है । इसी प्रकार जीत्र और पुद्गल के ठहराने में जो सहायक होता है, ऐसा त्रैलोक्य व्यापी सूक्ष्म अरूपी पदार्थ अधर्म द्रव्य कहलाता है । सर्व द्रव्यों को अपने भीतर अबकाश देने वाला द्रव्य आकाश द्रव्य कहलाता है । और समस्त पदार्थों के परिवर्तन में जो सहायता देता है, उसे काल द्रव्य कहते हैं । इन पांचों द्रव्यों के स्वरूप को यथार्थ जानना अजीव तत्व है । मन, वचन और काय को चंचलता से जो कर्भ पुद्गल आत्मा के भोलर
पाते हैं, उसे आस्त्रय तत्त्व कहते हैं । इस प्रकार आये हुए कर्म पुद्गल आत्मा के प्रवेशों के साथ & मिलकर एकमेक रूप हो बन्ध जाते हैं उसे बन्ध तत्व कहते हैं। पूर्व संचित कर्मों के एक देश क्षय