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देकर मार डालते है। ऐसे पंचेन्द्रिय तिर्यंचों को असहनीय दुख सहना पड़ता है । वह देव मिथ्यादृष्टि निदान के बल से पृथ्वीकायिक, जलकायिक और वनस्पतिकायिक इन तीनों जाति के एकेन्द्रियों में उत्पन्न होते हैं, शेष अग्निकायिक और वायुकायिक एकेन्द्रियों में नहीं उत्पन्न होते हैं । और हीरा पन्ना नोलम आदि ऊंच जाति की रत्नमयी पृथ्वीकायिक जीवों में उनकी उत्पत्ति होती है। जलकाधिक में स्वांत बिन्दु जो कि जल मोती या गजमुक्ता के या वांस में परिणत होता है । इसी प्रकार वनस्पतिकायिक में भी गुलाब चमेली चम्पा उत्तम जाति के पुष्प वृक्षों में और नारियल अनर केला आम् आदि उत्तम जाति के फल वृक्षों में उत्पन्न होता है । और तीसरे स्वर्ग से लेकर बारहवें स्वर्ग तक के मिथ्यादृष्टि देव संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचों और मनुष्यों में जन्म लेते हैं। इससे ऊपर के देव मनुष्य योनियों में ही जन्म लेते हैं जो जोव यहां सराग संयम को धारण करते हैं और व्रत शील या संयम पालन करने से जीव विमान वासी देवों में उत्पन्न होते हैं। जो सम्यग्दर्शन सहित उक्त व्रतादि का पालन करते हैं वे इन्द्र प्रतीन्द्र आदि महञ्जिक देवों में उत्पन्न होते हैं और जो मिध्यादृष्टि उक्त व्रतों को पालन करते हैं, वे निम्न श्र ेणी के वैमानिक देवों में उत्पन्न होते हं अर्थात् संसार परिभ्रमण का मूल कारण मित्यादर्शन है इसके कारण जीव चतुर्गति में नाना प्रकार के दुःख भोगता है । इसलिये मिग्यादर्शन के समान त्रिलोक और त्रिकाल में भी जीव का कोई अन्य शत्रु नहीं है । संसार से कम्पायमान प्राणियों को इम मिथ्यात्व का त्याग करके सम्यग्दर्शन धारण करना चाहिए बिना सम्यग्दर्शन के जोव का संसार से निकास- उद्धार नहीं हो सकता है। भावार्थजो सम्यग्दर्शन के बिना व्रत संयम समिति गुप्ति तपश्चरण, छहों आवश्यकों का पालन, ध्यानाध्ययन चारित्र, परिषहों का सहना, दिगम्बर भेष आदि साधन करना, ये सब संसार के कारण ही समझता
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