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तीन लोक को नाज जो खाय, मिटे न भूख कणा न लहाय ।
ये दुख बहु सागर लों रहें, करण जोगले तर गति लहैं ॥१३॥ अर्थ-उन नकों की भूमि को छूने से ऐसा दुःख होता है कि वैसा दुःख हजारों बिच्छुओं के एक साथ डंक मारने से भी नहीं हो सकता । वहां पर पोप और खून से भरी हुई कोड़ों के समूह से 8 & युक्त और शरीर को जलाने वाली येतरणी नदी बहती है. वहां के वृक्ष सेमर के वृक्ष के समान लन्ने
और तलवार की धार के समान तेज धार वाले पत्तों से युक्त होते हैं। जब कोई नारको छाया विश्राम पाने की इच्छा से उन वृक्षों के नीचे पहुंचता है तो उन वृक्षों के पत्ते ऊपर से गिरकर तलवार के समान उन नारकियों के शरीर को विदीर्ण कर डालते है । उन नारकियों के इतनी अधिक शीत उष्ण' को वेदना है कि यदि मेरु पर्वत के समान एक लाख योजन का लोहे का गोला यहां डाला जाय तो क्षण
मात्र में गल जाय । वहाँ नारकी आपस में एक दूसरे के तिल-तिल प्रमाण शरीर के खंड कर डालते & & हैं और ऊपर से दुष्ट एवं प्रचण्ड स्वभाव वाले असुर उन्हें आपस में भिड़ाते हैं । वहां प्यास की
वेदना इतनी अधिक होती है कि यदि समुद्र भर भी पानी पीने को मिल जाय तो भी प्यास न बुझे, ल परन्तु पीने को एक बून्द भी पानी नहीं मिलता है । वहां भूख को बेदना इतनी अधिक होती है कि
यदि तीनों लोकों का समस्त अन्न भो खाने को मिल जाय, तो भी भूख न मिटे, परन्तु अन्न का एक वाना भी खाने को नहीं मिलता है । ये दुःख और इसी प्रकार के अन्य अनेकों बुःख यह जोब कई
सागरों तक सहता है, तब कहीं जाकर यह जोव कर्म योग से मनुष्य गति पाता है । भावार्थ--इस & चतरा पृथ्वी के नीचे छह राजू में सात नरक हैं, उनमें उत्पन्न होने वाले जीवों को नारको कहते हैं । 8 इन नारको जीवों का शरीर वैक्रियिक होता है इस लिए वह एक अन्तमुहूर्त में हो पूर्णावयव हो