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छेदन भेदन भूखरु प्यास, भार वहन, हिम, आतप त्रास ||८|| बध बंधन आदिक दुख घने, कोटि जीभते जात न भने ।
अति संक्लेश भावते मरयो, घोर शुभ्र सागर में परयो ॥ ६ ॥
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स्वभ्र
अर्थ --- विकलेन्द्रिय पर्याय से कभी निकलकर जीव पंचेन्द्रिय पशु भी हुआ तो मन के बिना बिल्कुल अज्ञानी रहा, और कभी यदि सेनी भी हुआ तो सिंह, मच्छ, गोध प्रादि क्रूर जीवों में उत्पन्न हुआ, वहां सैंकड़ों निर्बस पशुओं को हत कर खा गया, और कभी यह जीन स्वयं निर्बल हुआ तो बलवान जोगों के द्वारा प्रत्यन्त दोनता पूर्वक खाया गया और छेक्न भेदन भारन ताड़न सहना पड़ा और शीत, उष्ण, मूख, प्यास, बोझा ढोना, बघ बंधन को प्राप्त होना इत्यादि प्रसंस्य दुखों को त्रियंञ्च योनि में सहता है, जो कि करोड़ों जिह्वाओं के द्वारा भी नहीं कहे जा सकते हैं ? ऐसे घोर दुःखों को भोगते हुए यह जीव जब अत्यन्त संक्लेश भाव से मरता है तो घोर नरक रूपी महासागर में जा गिरता है। भावार्थ- पंचेन्द्रिय जीव दो प्रकार के होते हैं एक संनी, दूसरे असैनी । जिनके मन होता है वह सैनी हैं, इसे संज्ञी समनस्क भी कहते हैं, जिनके मन नहीं होता है उन्हें असैनी, असं या श्रमनस्क कहते हैं । ये दोनों प्रकार के जीव गर्भज भी होते हैं, और सन्मूर्च्छन भी होते हैं, जिन जीवों का शरीर माता पिता के रज और वीर्य के संयोग से बनता है उन्हें गर्भज कहते हैं जैसे -- गाय, घोड़ा, तीतर, कबूतर, मगरमच्छ इत्यादि । किन्तु जिन जीवों का शरीर माता पिता के रज वीर्य की अपेक्षा बिना इधर उधर के परमाणुओं के मिल जाने से उत्पन्न होता है उन्हें संमूच्छिन कहते हैं; जैसे जल, सर्प वगैरह । उक्त दोनों ही प्रकार के संज्ञी और प्रसंजी जीव जलचर, थलचर और नभचर के भेव से तीन प्रकार के होते है । इन सर्व प्रकार के पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों में जो क्रूर स्वभाव
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