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भाचरण करते है, वह दुविनवी मायाचारी होते है उनके पवि भाग्यवश देवायु का बंच हो जाय तो वे किल्विषक जाति के देवों में उत्पन्न होते हैं। जो जीव कोध, मान, माया और लोम में आसक्त है और ४ चरित्र धारण करते हुए भी निर्भय भाव से युक्त हैं ये असुर कुमार देवों में उत्पन्न होते हैं तथा & जो जीव जीवन पर्यंत सधर्म को धारण करके भी जो मरण के समय उसको विराधना कर देते हैं और समाधि के बिना मरण को प्राप्त होते हैं वे कन्दर्प, अभियोग्य, सम्मोह आदि नाना प्रकार के निकृष्ट देव दुर्गति भवनवासी देवों में उत्पन्न होते हैं। तथा जो मिथ्यावृष्टि होते हुए भी मंव कषाप से युक्त होकर गाने बजाने में लगे रहते हैं लोगों के मनोरंजन के लिए बलपियों का वेष धारण करते है। 8 धन्वीजन, धारण, और नट, मांडों का वेष धारण करते हैं उनके यदि भाग्यवश वायु का बन्ध हो जाय तो वे व्यन्तर जाति के देवों में उत्पन्न होते हैं। जो घर के क्लेशों से ऊबकर कूप, नदी में गिरकर या अग्नि में प्रवेश कर; फांसी लगाकर मरने वाले भी प्रायः व्यन्तर येवों में उत्पन्न होते है । प्रोर पंचाग्नि का तपना; पहाड़ को चोटियों पर ध्यान लगाना; शरीर में भस्म लगाकर साधु- महन्तपने छ को प्रकट करमा; जटाजूट धारण कर मल परिषह को सहन करना; लोगों में मान प्रतिष्ठा के लिए 8 नाना प्रकार के प्रासन लगाकर ध्यान करने का स्वांग रचना, घी, दूध, रही प्रादि का त्याग केवल पूजा सत्कार पाने के लिए करना इत्यादि कारण विशेषों से मिथ्या दृष्टि जीव ज्योतिष्क देवों में उत्पन्न होते हैं । इस प्रकार भवन त्रिक में उत्पन्न होने वाले सर्व देवों के समस्त भोग-उपभोग समस्त . सामग्री पंचेन्द्रियों के तृप्ति कारण उपलब्धि रहती है, तथापि मिथ्यात्व कर्म के उदय तीवपना से, अपने ले २० से अधिक विभूति वाले देवों को देखकर उनके हण्य गर्भ में ईष्यों को अरिम सदा जलती रहता है। ले और उस संपदा को प्राप्त करने के लिए अनेक संकल्प विकल्प उत्पन्न होते रहते है । उन्हें अपने
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