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४ भी वह पारे के समान पुनः भापस में मिल जाते हैं । उक्त कथन में इतनी बात विशेष जाननी 8 & चाहिए कि नरकों में विकल-त्रय या पशु-पक्षी जीव नहीं होते हैं । वहां के नारकी अशुभ विक्रिया से
व्याघ्र, श्वान आदि विविध रूप को धारण कर आपस में एक दूसरे को खाते हैं, और सिंहादि नई-नई अपने देह को विक्रिया किया करते है, और यहां के तारको ही नये या पुराने नारकियों को वेदना पहुंचाने की दुर्भावना से अपने शरीर को विनिया द्वारा लट, पिपिलिका, सर्प, मगरमच्छ, ध्याघ्रादिक का 8 रूप धारण कर लेते हैं और परस्पर दुःख देते हैं । अपग्विक्रिया ही होती है । नारको जीव ही 8 विक्रिया के द्वारा वृतादि रूप धारण कर लेते हैं, मूसल तलवार आदि शस्त्रों के विषय में भी यही बात जानना चाहिए । और वह नारकी जीव नरक में पाप कर्म जो मद्य पान, मांस भक्षी, पशु-पक्षियों
के घातक और शिकार खेलने वाले जीव नारकों में जाकर उत्पन्न होते हैं । और वहाँ अनन्त दुःखों 8 को पाते हैं; जो जीव लोभ, क्रोध, भय, मोह के बल से असत्य भाषरण से, परधन हरण से, अत्यन्त
भयानक नरक में जाते हैं । जो लज्मा से रहित काम से उन्मत्त अन्याय करते हैं परस्त्री में प्रासक्त रह 8 कर रात दिन मैथुन का सेवन करते हैं वह नरक में घोर दुःख पाते हैं । जो जीव आयु के बंध के समय अनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ कषाय से व्याप्त चित्त रहते हैं और कृष्ण, नील, कापोत
इन तीन अशुभ लेश्याओं के अनुरूप जिनको प्रवृत्ति रहती हैं जो बहुत आरम्भ और बहुत परिग्रह में & मस्त रहते हैं, दया दान शील जप तप से जिनका हृदय शून्य रहता है और आहार, भय, मैथुन और 8 परिग्रह इन चारों संज्ञाओं में अत्यन्त आसक्त रहते हैं ऐसे पापी मनुष्य और तिर्यच पंचेन्द्रिय जीव & नरक में जाकर उत्पन्न होते हैं और वहां से निकल कर तिर्यंच सैनी या मनुष्य उत्पन्न होता है। किन्तु : & सातवें नरक से निकला हुआ जीव नियम से पंचेन्द्रिय तियंच ही होता है । और नरक से निकला