Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
View full book text
________________
| ३२ ]
महाभाष्य प्रणेता पतंजलि के कई सौ वर्ष पहिले पाणिनि ने जन्म ग्रहण किया था । अतएव श्रव निश्चय है कि शाकटायन का उणादि सूत्र अत्यन्त प्राचीन ग्रंथ है ।
(७) बौद्धशास्त्र में नैनधर्म निर्मयों का धर्म बतलाया है और यही निर्मन्थ धर्म बौद्धधर्म के बहुत पहिले प्रचलित था ।
(८) डा० राजेन्द्रलाल मित्र योगसूत्र की प्रस्तावना में कहते हैं कि सामवेद में एक बलिदान विरोधी यति (जैन मुनि) का उल्लेख है । उसका समस्त ऐश्वर्य भृगु को दान कर दिया गया था, क्योंकि ऐतरेय ब्राह्मण के मत में बलिदान विरोधी यति को शृगाल के सन्मुख प्रक्षिप्त करना चाहिये । मगध वा कीकट में यज्ञदानादि का विरोधी एक सम्प्रदाय था, (देखो ऋग्वेद अष्टक ३, श्रध्याय ३, वर्ग २१ ऋचा १४, तथा ऋग्वेद, मं० ८, श्र० १०, सूक्त ८९, ऋचा ३, ४ तथा ऋग्वेद मं० २, ०२, सू० १२, ऋचा ५; ऋग्वेद अष्टक ६ अध्याय ४, वर्ग ३२, ऋचा १०, इत्यादि ) |
(९) सांख्य दर्शन सूत्र ६ - " श्रविशेषश्चोभयोः " अर्थात् दुःख और यंत्रणा दूर करने वाले दृश्यमान और वैदिक उपायों में कोई भेद नहीं है। क्योंकि वैदिक बलिदान एक निष्ठुर प्रथामात्र है। यज्ञ में पशु हनन करने से कर्मबन्ध होता है, पुरुष को तज्जन्य लाभ कुछ नहीं होता ।
"मा हिंस्यात्सर्वभूतानि ।" "अग्निषामीयं पशुमालभेत्”
"दृष्टिवदानु श्रविका सह्यविशुद्धि क्षयातिशययुक्तः” सांख्यकारिका ॥
गौडपाद - सांख्यकारिका के भाष्य में निम्न लिखित श्लोक उद्धृत कर के कपिल ऋषि के मत का समर्थन करते हैं:
ताते तद्बहुशोभ्यस्तं जन्मजन्मांतरेष्वपि । श्रयी धर्ममधर्माढ्य न सम्यक्प्रतिभाति मे ॥ अर्थात् - हे पिता ! वर्तमान और गव जन्म में मैंने वैदिकधर्म का अभ्यास किया है; परन्तु मैं इस धर्मका पक्षपाती नहीं हूँ क्योंकि यह अधर्मपूर्ण है ।
(१०) कपिलसूत्र का भाष्यकार विज्ञान भिक्षु "मार्कण्डेय पुराण से" निम्न लिखित श्लोक उद्धृत करके कपिलमत का समर्थन करता है:
-
तस्माद्यास्याम्यहं तात दृष्ट्वेमं दुःखसन्निधिम् | त्रयी धर्ममधर्माढ्यं किंपाकफलसन्निभम् ||
श्रर्थात् — हे तात ! वैदिकधर्म को सब प्रकार अधर्म और निष्ठुरतापूर्ण देख कर मैं किस प्रकार इसका अनुसरण करूँ ? वैदिकधर्म किंपाकफल के समान बाह्य में सौन्दर्य किन्तु भीतर हलाहल (विष) पूर्ण है । (११) "महाभारत" का मत इस विषय में जानने के लिये अश्वमेध पर्व, अनुगीत ४६, अध्याय २, श्लोक ११ की नीलकंठ कृत टीका पढ़िये ।
(१२) प्राचीनकाल में महात्मा ऋषभदेव "अहिंसा परमोधर्मः " यह शिक्षा देते थे । उनकी शिक्षा ने देव मनुष्य और इतर प्राणियों के अनेक उपकार साधन किये हैं। उस समय ३६३ पुरुष पाखंड धर्म प्रचारक भी थे । चार्वाक के नेता "बृहस्पति" उन्हीं में से एक थे। मेक्समूलर आदि यूरोपीय पण्डितों की भी यही धारणा है जो उनके सन् १८९९ के लेखसे प्रकट है जिसे ७६ वर्ष की उमर में उन्होंने लिखा है ।
(१३) अतएव प्राचीन भारत में नाना धर्म और नाना दर्शन प्रचलित थे इसमें कोई संदेह नहीं है ।
(१४) जैनधर्म हिन्दूधर्म से सर्वथा स्वतंत्र है। उसकी शाखा वा रूपान्तर नहीं है। विशेषतः प्राचीन भारत में किसी धर्मान्तर से कुछ ग्रहण करके एक नूतन धर्म प्रचार करनेकी प्रथा ही नहीं थी। मेक्समूलर Jain Edl का भी यही मत है ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org