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सूत्रकृतांग (१) के सातवें अध्ययन की चौदहवीं गाथा है । उसमें कहा है कि, ‘पानी छिडकने से अगर सिद्धि या लब्धि प्राप्त होती तो मछलियाँ आदि जलचर जीव पूरी उम्रभर पानी में होने के कारण कब के मोक्षगामी हुए होते ।'
जैन कहते हैं कि रूढ मान्यताओं को छोडकर तर्काधिष्ठित रहो । बुद्धि से सब की जाँच, विवेक करों और सिद्धशिलातक पहुँचों ।
वैदिक, वैष्णव आदि सब आचमन, संकल्प, स्नान, त्रिकालसन्ध्या आदि में पानी का उपयोग काफी मात्रा में करते हैं । पूजा समाप्ति में वे कहते हैं किअकालमृत्युहरणम् सर्वव्याधिविनाशनम् विष्णु/शिव पादोदकं तीर्थं जठरे धारयाम्यहम् ।।
नदीस्नान या समुद्रस्नान की बात तो दूर ही है, जैनियों के साधुआचार में अस्नानव्रत को ही सर्वाधिक स्थान दिया है । तालाब, सरोवर, नदी, समुद्र आदि से सम्बन्धित सामाजिक उत्सवों का भी जैनियों में प्रचलन नहीं है । सूत्रकृतांग आगम में स्नानद्वारा शुद्धि की मान्यता को करारा जवाब दिया है । शरीर शुद्धि के बदले चित्तशुद्धि का महत्त्व खास तौरपर बताया है । जल का अपव्यय करने को प्राणातिपात याने हिंसा ही समझा है
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