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से कर्मबन्ध क्षीण नहीं होते, कर्मबन्ध से मुक्ति पाने के लिए पुरुषार्थ करने की आवश्यकता होती है । अपने सुखदुःखों का कर्ता भी आत्मा स्वयं है और भोक्ता भी स्वयं ही है । इसलिए केवल विनयवाद से मोक्षप्राप्ति मानना, मिथ्या है। अक्रियावाद : अक्रियावाद के बारे में चूर्णिकार कहते हैं कि, लोकायतिक- चार्वाक, बौद्ध, सांख्य आदि अनात्मवादीही अक्रियावादी है । अक्रियावादियों का कहना है कि “आत्मा का अस्तित्व ही नहीं है, तो कोई क्रिया भी नहीं हो सकती और क्रियाजनित कर्मबन्ध भी नहीं हो सकते ।” इस तरह अक्रियावादी कर्मबन्ध के भय से क्रिया का ही निषेध करते हैं । आक्षेप लेने पर एक पक्ष कहता है ‘क्रिया है पर चय संचय नहीं है ।' जबकी दूसरा पक्ष कहता है ‘क्रिया है, कर्मबन्ध भी है
और चय भी है ।' इस तरह दोनों पक्ष में एकवाक्यता भी नहीं है, परस्परविरोधी वाक्य बोलकर वे लोगों को ठगते हैं । सांख्य दर्शन
आत्मा याने पुरुष को अक्रिय मानता है और प्रकृति को क्रियाशील मानता है । बौद्ध दर्शन में आत्मा को 'क्षणिक' मानते हुए भी गौतम बुद्ध की पूर्वजन्मधारित जातककथाएँ सत्य मानते हैं । ‘सूत्रकृतांग' में अक्रियावादियों को अन्धे मनुष्य की उपमा दी है, जो हाथ में दीपक होते हुए भी नेत्रविहीन होने से पदार्थों को नहीं देख सकता । वैसे अक्रियावादी प्रज्ञाविहीन होने के कारण विद्यमान पदार्थों को भी नहीं देख सकते । जैन दर्शन में आत्मा को गुण और पर्याय से युक्त द्रव्य माना है । इसलिए गुण की अपेक्षा से आत्मा का त्रैकालिक अस्तित्व माना है और पर्याय