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नहीं कर सकते । अच्छा, बुरा समझकर भी पूरी तरह अच्छा भी नहीं बन सकतें, तो फिर उस ज्ञान का क्या फायदा ? इसलिए अज्ञान ही अच्छा है ।” ऐसा कहनेवाले अज्ञानवादी वास्तव में मिथ्यावादी है, क्योंकि वे स्वयं तत्त्व से अनभिज्ञ होते हुए भी, अपने आपको ज्ञानी मानकर दूसरों को उपदेश देते हैं । वे यह नहीं जानते कि ‘अज्ञानवाद' का परिचय कराना, या ‘अज्ञानवाद' की श्रेष्ठता बताना, अज्ञानवाद का ढाँचा बनाना, यह सब 'ज्ञान' से ही सम्भव है । इसलिए ‘अज्ञान' को कल्याण का कारण मानना केवल असम्बद्ध है और संयुक्तिक, या
तर्कशुद्ध भी नहीं लगता। २) विनयवाद : विनयवादी, वस्तुस्वरूप न समझते हुए, सत्य, असत्य,
अच्छा, बुरा इनकी परीक्षा किये बिना ही केवल विनय से मोक्षप्राप्ति होती है' ऐसा मानते हैं । 'विनयवाद' से कुछ मिलता जुलता संदर्भ, दानामा और प्राणामा प्रव्रज्या के वर्णन में भगवतीसूत्र में मिलता है । 'दानामा प्रव्रज्या' अर्थात् देवता, राजा, माता, पिता आदि सभी का मन, वचन, काया से दान देकर विनय करना होता है । 'प्राणामा प्रव्रज्या' अर्थात् सामने जो भी दिखे, चाहे वह मनुष्य हो या पशु सभी को विनयपूर्वक प्रणाम करना होता है ।।
जैन दर्शन में विनय को ‘धर्म का मूल' एवं 'आभ्यंतर तप' कहा है। कोई सैद्धान्तिक आधार या तत्त्वाधार न देखते हुए केवल विनय करना यह या तो केवल मूढता है, या फिर ऐसे विनय में शरणागति का भाव है जिसे जैन दर्शन में कोई स्थान नहीं है । जैन दर्शन का कहना है कि शरणागति
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