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का आचरण बहुत कठोर था । वे आजीवन निरन्तर ब्रह्मचर्य पालन करते थे । भिक्षा माँगकर निर्दोष आहार ग्रहण करते थे । वे अत्यन्त संयमी, यतनावान होते थे । पंचयाम-धर्म का चलन था । साथ ही साथ पार्श्वपत्य जैसे पार्श्वपरम्परा के श्रमणों का चातुर्याम धर्म भी, कहीं कहीं मौजूद था । चातुर्याम से पंचयाम में परावर्तित होने की प्रक्रिया चल रही थी । अन्य परम्परा के साधुओं का, मुनियों का, यतियों का आचरण इतना कठोर नहीं था । वे आयुर्वेदिक दवाएँ, मैथुन, परिग्रह, प्राणातिपात से निवृत्त नहीं थे । जलस्नान, अग्नितप, कन्दमूलभक्षण करते थे । दण्ड- कमण्डलु धारण करते थे । तापस गाँव में, गाँव के बाहर, जंगलों में रहते थे । कई भिक्षु मांसाहार भी करते थे । कई जैन तथा अजैन साधु नग्न रहते थे । कई तापस गुप्तचर का काम भी करते थे । समाज में कई लोग इन सबका उपहास भी करते थे लेकिन अधिक प्रमाण में गृहस्थ इनको भिक्षा देते थे, आदरसम्मान करते थे ।
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समाज में 'गोत्र' संकल्पना का बडा ही प्रभाव था । आर्य-अनार्य, उच्च गोत्र - नीच गोत्र, लोग मानते थे । इनकी भाषाएँ भी अलग-अलग थी । समाज में संयुक्त कुटुम्बपद्धति का प्रचलन था । कुटुम्ब में कुटुम्बप्रमुख की सत्ता चलती थी । समाज में दास-दासी जैसी कठोर व्यवस्था भी थी । खाने रहने के बदले,
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ये आजीवन सेवा करके गुजारा करते थे । इन्हें किसी भी तरह का स्वातन्त्र्य नहीं था । इनका उल्लेख हमेशा पशुओं के साथ आता है । इनको पशुओं से भी गयागुजरा समझा जाता था । समाज में चार वर्णों का प्रचलन था । ब्राह्मणों के लिए बडे-बडे भोजों का आयोजन होता था । वणिक व्यापार करते थे ।
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समाज में मन्त्र-तन्त्र, गण्डा - दोरा करनेवाले लोगों की भरमार थी । वे लोगों की असहायता का फायदा लेकर उन्हें लूटते थे । नागकुमार, यक्ष, भूत
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