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इत्यादि का पूजन होता था । उनके लिए बलि चढाया जाता था । देवों के सामने पशुबलि देने का रिवाज था । समाज में अन्धश्रद्धा, पूजाअर्चा, कर्मकाण्ड की भरमार थी।
अलग-अलग ४० प्रकार के विद्याओं का अध्ययन लोग करते थे । इन विद्याओं का निर्देश इस ग्रन्थ में है । लोग अनेक प्रकार के व्यवसाय करते थे, जैसे खेती, मच्छिमारी, भेडे-बकरी चराना, गोपालन इत्यादि । मसूर, चावल, तिल, उडद, मूंग, वाल इत्यादि तरह-तरह के धान खेती में उगाये जाते थे । मुख्य फसल-अन्तर फसल ऐसी व्यवस्था होती थी । तिल का तेल निकाला जाता था।
खेती के लिए ऊँट, गाय, बकरी, गधे पाले जाते थे । उनको रखने के लिए बडीबडी शालाएँ बनायी जाती थी। लोगों के घर, चारों ओर से खुले और बडे-बडे रहते थे । अतिथि के लिए घर के दरवाजे हमेशा खुले रखे जाते थे ।
मनोरंजन के लिए प्राणियों की शिकार होती थी । लोग बड़े पैमाने में मांसाहारी थे।
कई लोग उदार कामभोग भोगते थे । नाच-गाना, गहने पहनना, चन्दन जैसे सुगन्धी लेप लगाना, मालाएँ पहनना, मणि-सुवर्ण धारण करना – उनकी विलासी रहनसहन तथा समृद्धि का दर्शन कराती थी। लेप' श्रावक के वर्णन में हमें तत्कालीन समृद्धि का दर्शन होता है । विशाल-बहुसंख्य भवन, चांदी-सोना, गाय-भैंस, नोकर-चाकर इन सभी को ‘धनस्वरूप' माना जाता था ।
लोग घूमने के लिए गाडी, रथ, घोडागाडी, पालकी आदि वाहनों का वापर करते थे । व्यापार के लिए विदेश भी जाते थे । यात्रियों के लिए रास्ते में 'उदकशाला' (प्याऊ) तथा रहने के लिए ‘धर्मशाला' की व्यवस्था होती थी । इस
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