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८४ लाख योनि से भटककर जब पुण्य का संचय और बुरे कर्मों का क्षय करता है तब उसे पाँचों इन्द्रियों से परिपूर्ण शरीर तथा मन की प्राप्ति होती है । उसमें भी ज्ञान, दर्शन, योग, उपयोग आदि गुणों का प्रकटीकरण भी पंचेन्द्रिय में ज्यादा होता है । जिससे वह व्रत-प्रत्याख्यान करने की क्षमता रखता है, कर्म काटने का सामर्थ्य रखता है । इसीलिए तो आगम में, नरक में जाने के चार कारणों में एक कारण, ‘पंचेन्द्रिय का वध' स्पष्ट रूप से दिया है न कि ‘एकेन्द्रिय' ।
एकेन्द्रिय जीव की हिंसा हम प्रायः अर्थदण्ड के लिए करते हैं, अपनी जीवनचर्या चलाने के लिए करते हैं । परन्तु पंचेन्द्रिय जीव की हिंसा प्राय: जिह्वा की लोलुपता के लिए, निर्दयता से, क्रूर भावों से की जाती है । इससे ‘जीवनचक्र' बिगडता है । यह 'अनर्थदण्ड' है, इसमें ज्यादा पाप है । यह समझाने के लिए हम आज के परिवेश से अनेकों उदाहरण दे सकते हैं ।
जैसे - एक प्रधानमंत्री की आत्मा और एक भिखारी की आत्मा समान है फिर भी यदि प्रधानमंत्री मरता है तो राष्ट्रीय शोक और भिखारी मरे तो किसी को पता भी नहीं चलता ।
___एक नकली हार है और दूसरा सोने में भी हिरे-पन्ने से जुड़ा हुआ है । दोनों में से किसके गुम होने पर ज्यादा दुख होगा ? अर्थात्, जिसका मोल, सुन्दरता, उपयोगिता अधिक, उसका गुम होना अधिक दुःखदायक होगा ।
ऐसे अनेकों तथ्य और उदाहरण हैं फिर भी उससे भी कहीं ज्यादा मायने रखती है, 'हमारी खाने के प्रति आसक्ति', जो इन भक्ष्य-अभक्ष्य का विवेक न रखने के कारण पाप को बढावा देती है ।
माना कि हरेक आत्मा समान है । इसको नकारा भी नहीं जा सकता ।
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